Tuesday 26 July 2011

ध्यान


आप सभी मित्र का स्वगत है. ओशो ध्यान  योग  में,
ओशो और उनके दिए गए ध्यन विधियों के प्रोयोग और जानकारिया तथा योग के बारे में एक छोटा सा प्रयास.सभी ओशो प्रेमी का स्वागत तथा मेरा प्रणाम स्वीकार करे .

 




विपासना ध्यान

परिचय-
          योग शास्त्रों में ध्यान को तीन भागों में बांटा गया है- धारणा, ध्यान और समाधि। धारणा ध्यान की साधारण अवस्था है जिसमें व्यक्ति मन को दृढ़ और एकाग्र करता है। ध्यान में व्यक्ति मन को किसी विषय-वस्तु पर चिन्तन व मनन में लगाता है। ध्यान की उच्च अवस्था ही समाधि है जिसमें मन को पूर्ण रूप से ईश्वर में लीन (मग्न) कर दिया जाता है। सभी प्रकार के कष्टों को दूर कर मन में सत्य का ज्ञान व आनन्द प्राप्त कराना ही ध्यान साधना का मुख्य लक्ष्य है और यह विपासना, ध्यान साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में विपासना ध्यान साधना योग क्रिया की अंतिम स्थिति है, जिसकी शुरुआत धारणा से होकर शाश्वत ध्यान में होती है और अंत में समाधि के रूप में यह समाप्त हो जाती है। ध्यानाभ्यास मनुष्य की चेतना को उत्प्रेरित करता है। जब इन्द्रियां अपने कार्यों की ओर अग्रसर होती है, तो मनुष्य के रोग व मानसिक तनाव बढ़ जाता है। परन्तु विपासना ध्यान साधना के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक तनाव दूर होकर मन शांत व आनन्दमय बनता है। 
          विपासना ध्यान साधना व्यक्ति का मानसिक विकास, सात्विक और शांत जीवन व्यतित करने में सहायक तो होती ही है, साथ ही यह वैराग्य द्वारा आध्यात्मिक विकास करने में भी लाभकारी होता है। विपासना ध्यान साधना वास्तव में हमारे अन्दर बिखरी हुई शक्ति को एकत्र करके एक तेज शक्ति का विकास करती है। जब हमारे अन्दर की सभी आध्यात्मिक व शारीरिक शक्ति एकत्रित हो जाती है, तब उन शक्तियों को हम शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए उपयोग करते हैं। ध्यान के अभ्यास के बिना आध्यात्मिक सुख तो क्या सांसारिक सुख की प्राप्ति करना भी सम्भव नहीं है।
          विपासना ध्यान साधना विधि एक सम्पूर्ण विज्ञान है, जिसके अभ्यास से व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना होती है। ध्यान योग यद्यपि मुख्य रूप से आध्यात्मिक साधना विधि के रूप में जाना जाता है, परन्तु यह जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी लाभकारी है। इसके अभ्यास से व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर अपने आप ईश्वरमय हो जाता है। ध्यानावस्था के अभ्यास से जब व्यक्ति जीवन की बाहरी क्रियाओं को छोड़कर आंतरिक जीवन में अपने-आप को लगा लेता है तो उस समय उसे नई-नई अनुभूतियां प्राप्त होती है। तब मानव जीवन सफल और आसान बन जाता है, जिससे व्यक्ति के अन्दर अदभुत कला आ जाती है। ध्यान के द्वारा विवेक, बुद्धि और भावना पर नियंत्रण करने पर अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है। इस संसार को महात्मा गौतम बुद्ध ने सबसे अनमोल और अदभुत वस्तु प्रदान की है जिसे विपासना ध्यान साधना कहते हैं।
          बहिर्मुखता के अंतिम स्थिति पर पहुंचते हुए मनुष्य के व्यक्तित्व को विपासना ध्यान साधना के द्वारा जीवन के अच्छी दिशा की ओर किया जा सकता है। इसके लिए केवल सही समय पर शुभ प्रेरणा और सही संकल्प चाहिए। यदि संयोग से किसी दिव्य ध्यान योगी का आश्रय मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाता है। मानव जीवन की शक्तियों के रचनात्मक विकास के लिए भगवान बुद्ध ने विपासना ध्यान साधना की रचना की है। योग शास्त्र में विर्णत ध्यान योग की अनेक विधियां है, जिनमें से किसी एक विधि को अपनाकर मानव जीवन को सफल बनाया जा सकता है। मनुष्य के जीवन की सभी समस्याओं को दूर करने की क्रिया ध्यान साधना है।
          मानव अपने जीवन में विपासना ध्यान साधना को अपनाकर मन की विभिन्न शक्तिओं को संतुलित कर बुद्धि का विकास करने, शरीर एवं मन के विभिन्न विक्षेपों को संतुलित करने तथा आत्मा की अनंत शक्ति प्रकट करने में सफल होता है। मस्तिष्क पर ध्यान साधना का अच्छा प्रभाव पड़ता है।
         वैज्ञानिकों द्वारा मस्तिष्क पर की गई कुछ खोजों से पता चलता है कि मस्तिष्क के विभिन्न भागों की असमर्थता से इसके सभी कार्यों में असंतुलन उत्पन्न होता है, जिससे शरीर के कार्य में रुकावट उत्पन्न होने लगती है और शरीर रोगों का शिकार हो जाता है। इसका अर्थ है कि मस्तिष्क की सभी नाड़ियां एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करती बल्कि वे एक-दूसरे के विपरित कार्य करती है। जिसके परिणाम स्वरूप शरीर को नियंत्रण करने वाली प्रणाली में गड़बड़ी उत्पन्न होने लगती है।
          इस तरह जब शरीर नियंत्रण के बाहर हो जाता है तो मन में क्षोभ उत्पन्न होने लगता है, जिसके कारण मानसिक तनाव बढ़ जाता है और शारीरिक शक्ति का नाश होने लगता है। शरीर पर मस्तिष्क का नियंत्रण न होने से मन की विचारधारा भी कमजोर हो जाती है। उदाहरण के लिए मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा भावनाओं का होता है और निचले भाग में बुद्धि का हिस्सा होता है। जब किसी कारण से दोनों के बीच असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तब हमारे विचार तथा भावनाओं का मेल नहीं होता। ऐसी स्थिति में जो हम सोचते हैं, उसे अनुभव नहीं कर पाते। इस तरह मस्तिष्क की क्रिया में असंतुलन उत्पन्न होने से उलझन एवं कष्ट उत्पन्न होते हैं। विपासना ध्यान के अभ्यास से इन समस्याओं को दूर कर बुद्धि, विचार व भावनाओं को एकत्रित कर दिव्य शक्ति व ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।
विपासना ध्यान की उत्पत्ति-
          हिन्दू धार्मिक और उपनिषदों परम्पराओं के अनुसार प्राचीन काल से ही लोग दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष (मुक्ति) को पाने की इच्छा करते रहें हैं। इन इच्छाओं के कारण ही बौद्ध धर्म का उदय हुआ। मोक्ष प्राप्त करना ही बौद्ध धर्म का महान कार्य है और इस महानता के कारण ही यह धर्म पूरे एशिया में फैलाया गया।
          ´बुद्ध´ का अर्थ है प्रबुद्ध व्यक्ति अर्थात जिसे सत्य का ज्ञान हो। भगवान बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ था और इनका जन्म उत्तर पूर्वी भारत के तराई क्षेत्र में लुंबिनी नामक स्थान पर शाक्य वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम शुद्धोधन और माता का नाम मायादेवी था। भगवान बुद्ध का पालन-पोशन महलों में ही हुआ था जिससे उन्हें बाहरी जीवन का कोई ज्ञान नहीं था। परन्तु जब वे महलों से बाहर निकले तो उन्होंने ऐसे तीन दृश्य देखें जिसे देखकर उनके अंतर मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ये तीनों दृश्य उनके जीवन को बदल कर रख दिया। ये तीन दृश्य थे-
  • एक बूढ़ा व्यक्ति जिनका शरीर नष्ट हो रहा है अर्थात वह मर रहा है।
  • किसी भयंकर रोग से पीड़ित व्यक्ति।
  • एक मरा हुआ व्यक्ति जिसे अंतिम संस्कार के लिए लोग श्मशान ले जा रहे थे।
          इन तीनों दृश्य को देखकर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि कोई ऐसा रास्ता खोजा जाए जिससे मनुष्य सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति पा सके तथा जीवन के सत्य का पता लगा सके। उस समय वे विवाहित थे और उनका एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। फिर भी वे 29 वर्ष की आयु में अपने घर को त्याग कर सत्य की खोज में तथा जीवन का अर्थ जानने के लिए निकल पड़े। पीपल के एक पेड़ के नीचे कठिन तपस्या करने के बाद वे बिहार में बोधगया नामक स्थान पर उन्हें अपना ज्ञान प्राप्त हुआ।
          भगवान बुद्ध के अनुसार संसार में उत्पन्न होने वाले सभी दु:खों का मुख्य कारण तृष्णा (लोभ) है। जिसमें किसी भोग्य वस्तु को प्राप्त करने की लालसा होती है, वही व्यक्ति दु:खी होता है। बुद्ध ने चार महान सत्य के बारे में संसार को बताया है- 
  • पहला सत्य यह है कि संसार दु:खों से भरा हुआ है। जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु की सभी सामान्य घटनाओं के साथ ही दु:ख जुड़ा हुआ है।
  • दूसरा सत्य यह है कि दु:ख का कारण लोभ-लालसा की भूख है।
  • तीसरा सत्य यह है कि दु:खों को खत्म करने के लिए मन में उत्पन्न सभी प्रकार के लोभ-मोह त्याग देने चाहिए।
  • चौथा सत्य यह है कि अष्टागिक अर्थात सत्य का ज्ञान, सत्य का भाव, सत्य बोलना, अच्छा व्यवहार, अच्छे कर्म, हमेशा अच्छाई की कोशिश करना, अच्छे विचार और सत्य साधना। इन आठ अंगों का पालन करके संसारिक वस्तुओं के लोभ से छुटकारा पाया जा सकता है।
          भगवान बु़द्ध ने अपना पूर्ण जीवन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए व्यतीत कर दिया। बुद्ध का सिद्धान्त ही उनका धर्म था जो अत्यंत लाभकारी और आसान था। किसी भी जाति या व्यवसाय के लोगों के लिए बौद्ध धर्म का उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है जो पूर्णत: शांति तथा दु:खों के दूर करने की सबसे अच्छी साधना है।
          गौतम बुद्ध अपने आपको भगवान होने का दावा नहीं करते थे, बल्कि अपने को भगवान का एक ऐसा सेवक मानते थे, जो लोगों को जीवन का सही ज्ञान देते थे। जिससे मनुष्य के जीवन का दु:ख समाप्त हो जाए और वह वह पूर्ण शांति को प्राप्त कर सके। जीवन की उच्च स्थिति को पाने के लिए अष्टागिक मार्ग का अंतिम अंग सत्य साधना के अंतर्गत विपासना ध्यान की विधि के साथ सांगोपांग वर्णन दिया गया है।
          विपासना ध्यान साधना एक ऐसी साधना है जिसका अभ्यास आसानी से किया जा सकता है। विपासना ध्यान का अभ्यास बच्चे, बूढ़े, जवान, रोगी सभी कर सकता है। विपासना ध्यान साधना का अभ्यास तीन विधिओं द्वारा किया जा सकता है। अत: व्यक्ति तीनों विधियों में से किसी भी विधि का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है।
विपासना ध्यान पहली विधि-
          विपासना ध्यान के अभ्यास के समय व्यक्ति को हमेशा अपने प्रति जागरूक रहना चाहिए तथा किसी भी प्रकार के शारीरिक या मानसिक क्रियाकलाप के प्रति सावधान रहना चाहिए। कोई भी कार्य मानसिक या शारीरिक अचेतन या अवचेतन अवस्था में न करें। ध्यान साधना के अभ्यास में जो भी विचार मानसिक रूप से उत्पन्न हो, चाहे वह भावना या आवेग ही क्यों न हो, उनके प्रति दृढ़ बने रहें। आवेगों एवं भावनाओं के वेगों में अपने-आप को न बंधने दें। ऐसी स्थिति में न सोचे की क्या अच्छा है, क्या बुरा है। शांति से अपना जीवन व्यतीत करें। सुख-दु:ख आदि सभी लोभ-मोह का ही परिणाम है। मन का यही विचार ध्यान का हिस्सा है। इस प्रकार जो ध्यान किया जाता है, वह विपासना ध्यान की पहली विधि है।
          ध्यान साधना के अभ्यास के लिए शुद्ध व स्वच्छ हवा बहाव वाला स्थान चुने। फिर किसी ध्यानात्मक आसन जैसे- सुखासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएं। आंखों को बन्द करके रखें। सांस क्रिया को सामान्य रूप से करते रहें। अपने ध्यान को शरीर, मन व उत्पन्न होने वाली भावनाओं के प्रति जागरूक रहें।
विपासना ध्यान की विधि-
          किसी भी पद्मासन या सुखासन या सिद्धासन में बैठ जाएं। बैठने के बाद सांस क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करें। ध्यान रखें की सांस अन्दर खींचते हुए पेट फूले और सांस बाहर छोड़ते हुए पेट को अन्दर की ओर खींचें। इस तरह सांस क्रिया को लयबद्ध रूप से करें अर्थात सांस लेने व छोड़ने के समय को बराबर करें तथा अपने मन को सांस की उसी क्रिया पर केन्द्रित करें। इस विधि का प्रतिदिन 10 से 15 मिनट तक अभ्यास करने से मानसिक विचारों की उन्नत्ति होती है। यह विपासन ध्यान की दूसरी विधि है।
विपासना ध्यान तीसरी विधि-
          इसके अभ्यास के लिए पहले किसी ऐसे स्थान को चुने जहां स्वच्छ व साफ वातावरण हो। फिर उस स्थान पर किसी भी बताएं गए आसन जैसे- पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाएं। अब अपने मन को सांस पर केन्द्रित करें तथा नाक के द्वारा सांस अन्दर खींचें। सांस खींचते हुए उच्चतम स्थिति अनुभव करें तथा जो सांस के द्वारा वायु अन्दर जा रही है, उसकी शीतलता (ठंडक) का अनुभव करें। इस सांस क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करते हुए सांस लेने व छोड़ने की क्रिया का 10 से 15 मिनट तक अभ्यास करें। यह विपासना ध्यान की तीसरी विधि है।
          इस तरह विपासना ध्यान साधना की पहली विधि में शरीर, मन और भावनाओं के विषय में जागरूक रहना पड़ता है। इस तरह पहली विधि में तीन क्रियाओं पर ध्यान देना होता है। दूसरी में पेट के फूलाने व पिचकाने पर ध्यान देना होता है, जो एक चरण होता है। इन दोनों विधियों का परिणाम सामान्य है। जब सांस क्रिया व पेट की क्रियाओं के प्रति अधिक जागरूकता आ जाती है तो आपका मस्तिष्क और हृदय शांत हो जाता है तथा सभी इच्छाओं का नाश हो जाता है।
          वास्तव में यही विपासना ध्यान की तीसरी विधि है। इसमें मन और मस्तिष्क पूर्ण रूप से शांति का अनुभव करता है। जब मन नाक के द्वारा सांस लेने व छोड़ने की क्रिया में उत्पन्न शीतलता ऊष्मा का अनुभव करता है, तब मन की इच्छा खत्म होकर एकरूप हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप सभी सांसारिक क्रियाएं अपने-आप रुक जाती है। चेतना अपने स्वरूप को जान लेती है। व्यक्ति को आत्मदर्शन हो जाता है। विपासना ध्यान साधना करते हुए ध्यान की इसी स्थिति को समाधि कहा गया है।

साक्षी ध्यान

साक्षी ध्यान के अभ्यास की विधि-
          साक्षी ध्यान साधना का अभ्यास 3 स्थितियों में किया जाता है। पहली स्थिति में मन को शांत, स्वच्छ एवं अंतर आत्मा में केन्द्रित करने का अभ्यास किया जाता है। दूसरी स्थिति में मन को सांस क्रिया पर एकाग्र किया जाता है। तीसरी स्थिति में जब मन और सांस लयबद्ध हो जाते हैं, तब मन को अपनी इच्छा के अनुसार किसी एक स्थान केन्द्र पर केन्द्रित किया जाता और अपने अंदर की बुराइयों को दूर किया जाता है।
पहली स्थिति-
          ध्यान के अभ्यास के लिए किसी भी ध्यानात्मक आसन जैसे- पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन या सुखासन में बैठ जाएं। आसन में अधिक देर तक आराम से बैठ सकने वाले आसन में ही बैठे। इसके अभ्यास को कुर्सी या सोफे पर बैठकर भी किया जा सकता है। आसन वाली जगह पर स्वच्छ हवा का बहाव होना आवश्यक है।
          अब आसन में बैठकर अपनी पीठ, छाती, गर्दन व कमर को सीधा रखें। हाथों को घुटनों पर रखें और आंखों को बन्द कर लें। अब मन को पूर्ण रूप से स्वतंत्र कर दे अर्थात मन को अपनी इच्छा के अनुसार ही सोचने दें। मन यदि स्वतंत्र रूप से घूमते हुए किसी दृश्य, रूप, मंत्र अथवा चिंतन में रुकता है, तो रुकने दें। मन जिस तरह के विचार या दृश्य की कल्पना करता है, बस साक्षी भाव से, दृष्टि भाव से उन विचारों व दृश्यों को मात्र देखते रहें। ऐसे विचारों पर ध्यान दें, चाहे विचार अच्छें हो या बुरे, भविष्य के हो या भूतकाल के, आध्यात्मक हो या भौतिक उन्ही पर ध्यान केन्द्रित करें। अपने साक्षी भाव से सिर्फ उसे ही देखते रहे। इस ध्यान के अभ्यास में मन के विचार जिस रूप में भी रुकते हैं, उनका ध्यान ही करें।
समय-
          साक्षी ध्यान का अभ्यास कम से कम 5 मिनट और अधिक से अधिक 10 मिनट तक करें। इस अभ्यास में ध्यान रखें कि बाहर से सुनाई देने वाली किसी भी प्रकार की ध्वनि को अपने अभ्यास में बाधा न माने। अपने ध्यान को मन के अनुसार ही एकाग्र करके रखें। इस ध्यान साधना में मन को किसी भी स्थिति में एकाग्र व स्थिर किया जाता है।


अभ्यास से लाभ-
          साक्षी दर्शन से हमारे मन के दबे हुए विचार, विकार, ग्रंथियां एवं  संस्कार धीरे-धीरे वैसे ही निकल जाते हैं, जैसे किसी धातु को आग में गलाने से धातु शुद्ध हो जाती है और मन गंगाजल के समान स्वच्छ, शुद्ध, शक्तिशाली एवं उपयोगी हो जाता है।
दूसरी स्थिति-
          ध्यान की इस विधि में मन को किसी केन्द्र बिन्दु पर स्थिर किया जाता है। साक्षी दर्शन से मन को शांत, स्वच्छ एवं अर्न्तमुखी करने के बाद मन को सांस क्रिया के साथ लगा दें। इसमें सांस लेने और छोड़ने पर मन को एकाग्र किया जाता है। इस स्थिति में मन को उसी तरह सांस के साथ स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है जैसे किसी पानी की धारा में जलकुम्भी अपने आप को पानी के सहारे छोड़ देती है। इस क्रिया में मन नाक के अगले भाग पर एकाग्र होता है और जैसे-जैसे सांस (वायु) नाक के द्वारा होते हुए नाभि तक जाती है और नाभि से श्वास लौटता हुआ नासिका द्वार के बाहर आता है, वैसे ही मन भी घूमता रहता है। अब धीरे से मन को मात्र नाभि पर केन्द्रित करें और कल्पना करें कि सांस क्रिया के द्वारा नाभि जो ऊपर-नीचे होती रहती है, उस पर मन बैठकर मन झूल रहा है। ध्यान की इस स्थिति में नाभि के स्पन्दन दर्शन मे बराबर वैसे ही जागरूक होते हैं, जैसे किसी पानी से भरे बर्तन को सही सलामत ऊपर पहुंचाना। इसमें ध्यान रखें कि नाभि का स्पन्दन बिना आपकी जानकारी के न हो। इसका अभ्यास कम से कम 5 मिनट और अधिक से अधिक 10 मिनट करना चाहिए।
          इस अभ्यास में एकाग्रता, ध्यान और चित्त शांति की अवस्था में स्वयं के दोष स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। एकाग्रता, ध्यान और चित्त शांति की अवस्था में मन के विपरित निर्णय लेने से स्वयं के दोष व विकार नष्ट होते हैं तथा मन स्वच्छ व साफ होता है।
          इस ध्यान के अभ्यास में व्यक्ति को अपने अंदर अच्छे गुणों को संस्कारित करना चाहिए। इस तरह ध्यान में उसके सकारात्मक चिंतन से अच्छे संस्कार उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार जीवन की किसी भी समस्या को दूर करने के लिए साक्षी ध्यान के अभ्यास के समय उस समस्या का ध्यान करने से उसका समाधान मिल जाता है, एकाग्रता की अवस्था में, ध्यान की अवस्था में चित्त शांति की अवस्था में ध्यान करने से स्वयं ही उसका हल निकल आता है। भारतीय ऋषि-मुनि इसी ध्यान साधना सें जीवन की कठिन समस्याओं को आसानी से दूर करते हुए अपने जीवन का जीते रहें है।
तीसरी स्थिति-
  • साक्षी ध्यान की तीसरी विधि में स्वयं के दोषों का ध्यान करना और उन्हे दूर करने का संकल्प किया जाता है। इस स्थिति में ध्यान करते हुए अपने मन में संकल्प करें-
  • मैं संकल्प लेता हूं कि मुझे अब ईश्वर की कृपा से कभी क्रोध नहीं आता है और मैं हमेशा शांत रहता हूं।´´ अपनी आंखों को बन्द करके एक-एक अक्षर को देखते हुए मन ही मन 3 बार बोले।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से झंझलाहट की परिस्थितियों में भी अब मुझे झुंझलाहट नहीं होती है।´´ इन शब्दों को 3 बार अपने मन में दोहराएं। मन ही मन बोलते हुए अपनी आंखों में उन शब्दों को एक-एक करके देखें।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मुझे बुरे मार्ग पर चलने पर भी अच्छे मार्ग व अच्छे कार्य याद रहते हैं।´´ आंखों को बन्द करके इन संकल्पों को 3 बार बोलें और उनका ही ध्यान करें।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मै विपरीत परिस्थितियों में भी साहस एवं शांति बनाए रखता हूं।´´ इन शब्दों का भी 3 बार आंख बन्द करके ध्यान करें।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मैं सत्य कहता हूं। मैं किसी भी बातों को मधुरता के साथ कहता हूं।´´ इस शब्द को भी 3 बार आंखें बन्द करके ही कहें।        
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मैं छोटे से छोटे कार्य को भी समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ करता हूं।´´ आंखों को बन्द करके ही इन शब्दों को 3 बार दोहराएं और मन ही मन उनका ध्यान करें।
  • मैं विश्वास करता हूं कि ईश्वर सभी जगह मौजूद है, ईश्वर ही  सर्वशक्तिमान है, ईश्वर ही संसार का पालन-पोषण करने वाला है। संसार में किसी के द्वारा किये गए अच्छे और बुरे कर्मो का फल मिलता है।´´ इन शब्दों को आंख बन्द करके ही मन ही मन 3 बार दोहराएं।
  • मैं ईश्वर की प्रेरणा से अपनी आय का दसांश, अपने भोजन का चतुर्थाशं, 24 घंटे में अवश्य लगाता हूं।´´ मन ही मन इन शब्दों का ध्यान करते हुए 3 बार दोहराएं।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से प्राण शक्ति की वृद्धि हेतु मै नियमित प्राणायाम एवं यौगिक व्यायाम तथा एकाग्रता, शुद्धि एवं वृद्धि के लिए नियमित साक्षी ध्यान का अभ्यास अवश्य करता हूं।´´ मन ही मन इन शब्दों का ध्यान करते हुए 3 बार दोहराएं।
तीसरी स्थिति में ध्यान करते हुए कुछ अन्य क्रियाएं-
          ध्यान करने के लिए अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी शब्दों का उच्चारण कर सकते हैं। ध्यान के अभ्यास में ´ओंकार´ ध्वनि का जप करें।
          ध्यान की अवस्था में ´ऊं´ का जप श्वास-प्रश्वास के साथ लम्बे स्वर में करें- ´ओ ओ ओ..........म् म् म्.......................
साक्षी ध्यान के अभ्यास के कुछ नियम-
  • ध्यान का अभ्यास दिन भर में कम से कम 30-30 मिनट तक 2 बार करें। ध्यान के अभ्यास के लिए सबसे अच्छा समय सुबह 4 से 5 और शाम को 8 से 10 के बीच करना चाहिए। ध्यान के अभ्यास के लिए यह समय शांत व स्वच्छ होता है और ध्यान लगाने में आसान होता है।
  • ध्यान का अभ्यास सुबह सोकर उठने के तुरन्त बाद शौच आदि से आने के बाद हाथ-मुंह धोकर स्वच्छ व साफ होकर करें। सुबह चेतना सोई हुई अवस्था में रहती है और सुबह उठकर ध्यान करने से उस चेतना अवस्था में प्रवेश करने में आसानी होती है। शरीर पूर्ण रूप से स्वच्छ व साफ होने से ध्यान के अभ्यास में नींद नहीं आती। ध्यान के अभ्यास के क्रम में रात को अधिक तली हुई वस्तु या मिठाई आदि का सेवन न करें।
  • लेटे-लेटे ध्यान करने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। इसमें नींद में जाने की संभावना रहती है। लेटते समय भगवान का जप किया जा सकता है।
  • ध्यान के प्रमुख आसन है- पद्मासन, सुखासन, सिद्धासन और स्वातिकासन। इनमें सिद्धासन को ध्यान के अभ्यास के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।
  • ध्यान की साधना के साथ तप, सेवा और वितरण की साधना परमावश्यक है।
  • ध्यान का आसन अधिक ऊंचा नहीं होना चाहिए। जब चेतना अंदर जाती है, तो शरीर ढीला हो जाता है, जिसके कारण गिरने का खतरा रहता है।
  • सुबह और शाम जब भी समय मिले ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान रखें कि ध्यान के लिए आसन बिछाकर ही बैठें तथा आसन ऊंचा या कठोर न हो।
  • विपरीत परिस्थिति या क्रोध की स्थिति में तुरन्त ध्यान पर बैठ जाना चाहिए। इससे क्रोध जल्दी शांत हो जाता है।
  • ध्यान में रीढ़ की हड्डी सीधी रखनी चाहिए। ध्यान के समय आवश्यक होने पर पीठ के पीछे तकिये को भी रख सकते हैं।
  • पढ़ने वाले बच्चों के लिए भी ध्यान बहुत जरूरी है, क्योंकि इसमें समझने की शक्ति, स्मरण शक्ति एवं प्रज्ञा वृद्धि बढ़ती है।
  • ध्यान के बीच में कोई जरूरी विचार आने पर कागज पर लिख लेना चाहिए, क्योंकि ध्यान में दैवीय प्रेरणा भी मिलती है।
  • किसी समस्या से ग्रस्त हो जाएं और उसका हल न मिल रहा हो तो साक्षी ध्यान में बैठ जाएं और उसके हल का इंतजार करें।

7 comments:

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  4. जो कुछ भी आपने लिखा है वो कचरे जैसा है। दरसल जो आप लिखना चाह रहे हैं भाषाशैली और शब्द प्रयोग ठीक नहीं होने के कारण आपकी बात खिचड़ी हो जा रही है। अगर कोई व्यक्ति वास्तव में ध्यान करना चाहे और आपका लिखा पढ़ ले तो वह ध्यान के सम्बन्ध में गलत जानकारी प्राप्त करेगा। आपने शरुआत में ही लिखा है -
    "सभी प्रकार के कष्टों को दूर कर मनमें सत्य का ज्ञान व आनन्द प्राप्त कराना ही ध्यान साधना का मुख्य लक्ष्य है और यह विपासना, ध्यान साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है।"
    ध्यान का मतलब ही है अमन की अवस्था। यानि चेतना की वह अवस्था जहाँ मन नहीं होता है। हमारे सारे विचार ही मन के हैं। लेकिन हम मन नहीं हैं। जब कोई विचार नहीं होता तब भी हम होते हैं। ध्यान करने से हमें ज्ञात होता है की हम शरीर नहीं हैं बल्कि शरीर से अलग हैं। इस अवस्था का नाम विदेह है। विचारों से अलग हैं, भावनाओं से अलग हैं। तब हमें ज्ञात होता है की हम कौन है। तब हमें हमारे ज्ञात होता है की हम जन्म, मृत्यु, शरीर, मन नहीं है बल्कि शाश्वत चैतन्य हैं। इसलिये बन्धु मन में सत्य का ज्ञान नहीं होता है बल्कि मन विलीन हो जाने पर सत्य का ज्ञान होता है। तब हम मन को देख सकते हैं और हमें पता होता है की हम मन नहीं हैं।

    आप ने लिखा ध्यान का लक्ष्य विपसना ध्यान साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। तो फिर विज्ञान भैरव तंत्र में बताई गयी बांकी 111 ध्यान विधि झूठ है क्या। क्योंकि इस किताब में विपसना सहित 112 ध्यान विधियों की चर्चा है।
    विपसना दरअसल ध्यान नहीं धारणा है। धारणा, ध्यान तथा समाधी ये तीन चरण है। साधक धारणा से शुरू करता है, फिर ध्यान घटित हो जाता है और आगे चलकर समाधि घटित हो जाती है।

    ओशो ध्यान सूत्र प्रवचन 6 का अंश नीचे अंकित है-
    ध्यान का मतलब, सब जो हमारे स्मरण में हैं, उनको गिरा देना है; और एक स्थिति लानी है कि केवल चेतना मात्र रह जाए, केवल कांशसनेस मात्र रह जाए, केवल अवेयरनेस मात्र रह जाए।

    ध्यान किसी का नहीं करना होता है। ध्यान एक अवस्था है, जब चेतना अकेली रह जाती है। जब चेतना अकेली रह जाए और चेतना के सामने कोई विषय, कोई आब्जेक्ट न हो, उस अवस्था का नाम ध्यान है। मैं ध्यान का उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूं।
    जो हम प्रयोग करते हैं, वह ठीक अर्थों में ध्यान नहीं, धारणा है। ध्यान तो उपलब्ध होगा। जो हम प्रयोग कर रहे हैं—समझ लें, रात्रि को हमने प्रयोग किया चक्रों पर, सुबह हम प्रयोग करते हैं श्वास पर—यह सब धारणा है, यह ध्यान नहीं है। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी, श्वास भी विलीन हो जाएगी। इस धारणा के माध्यम से एक घड़ी आएगी कि शरीर भी विलीन हो जाएगा, विचार भी विलीन हो जाएंगे। जब सब विलीन हो जाएगा, तो क्या शेष रहेगा? जो शेष रहेगा, उसका नाम ध्यान है। जब सब विलीन हो जाएंगे, तो जो शेष रह जाएगा, उसका नाम ध्यान है। धारणा किसी की होती है और ध्यान किसी का नहीं होता। 
    तो धारणा हम कर रहे हैं, चक्रों की कर रहे हैं, श्वास की कर रहे हैं। आप पूछेंगे कि बेहतर न हो कि हम ईश्वर की धारणा करें? बेहतर न हो कि हम किसी मूर्ति की धारणा करें? 
    वह खतरनाक है। वह खतरनाक इसलिए है कि मूर्ति की धारणा करने से वह अवस्था नहीं आएगी, जिसको मैं ध्यान कह रहा हूं। मूर्ति की धारणा करने से मूर्ति ही आती रहेगी। और जितनी मूर्ति की धारणा घनी होती जाएगी, उतनी मूर्ति ज्यादा आने लगेगी। 
    रामकृष्ण को ऐसा हुआ था। वे काली के ऊपर ध्यान करते थे, धारणा करते थे। फिर धीरे-धीरे उनको ऐसा हुआ कि काली के उनको साक्षात होने लगे अंतस में। आंख बंद करके वह मूर्ति सजीव हो जाती। वे बड़े रसमुग्ध हो गए, बड़े आनंद में रहने लगे। फिर वहां एक संन्यासी का आना हुआ। और उस संन्यासी ने कहा कि ‘तुम यह जो कर रहे हो, यह केवल कल्पना है, यह सब इमेजिनेशन है। यह परमात्मा का साक्षात नहीं है।’ रामकृष्ण ने कहा, ‘परमात्मा का साक्षात नहीं है? मुझे साक्षात होता है काली का।’ उस संन्यासी ने कहा, ‘काली का साक्षात परमात्मा का नहीं है।’ 
    किसी को काली का होता है, किसी को क्राइस्ट का होता है, किसी को कृष्ण का होता है। ये सब मन की ही कल्पनाएं हैं। परमात्मा के साक्षात का कोई रूप नहीं है। और परमात्मा का कोई चेहरा नहीं है, और परमात्मा का कोई ढंग नहीं है, और कोई आकार नहीं है। जिस क्षण चेतना निराकार में पहुंचती है, उस क्षण वह परमात्मा में पहुंचती है। 
    परमात्मा का साक्षात नहीं होता है, परमात्मा से सम्मिलन होता है। आमने-सामने कोई खड़ा नहीं होता कि इस तरफ आप खड़े हैं, उस तरफ परमात्मा खड़े हुए हैं! एक घड़ी आती है कि आप लीन हो जाते हैं समस्त सत्ता के बीच, जैसे बूंद सागर में गिर जाए।

    (अतः आपसे आग्रह है कि भाषाशैली में सुधार करें उसके बाद ध्यान के सम्बन्ध में कुछ लिखें। अन्यथा आपके इस प्रकार लिखने से लोग भटक सकते हैं और भ्रमित हो सकते हैं।)

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    1. Sudershanml जी आपकी बात सही है।

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