Tuesday 26 July 2011

षट्चक्र




योग शास्त्रों में मनुष्य के अन्दर मौजूद षट्चक्रों का वर्णन किया गया है। यह चक्र शरीर के अलग-अलग अंगों में स्थित है तथा इनके नाम भी भिन्न है। शरीर के अन्दर यह सात चक्र है-
• मूलाधार चक्र
• स्वाधिष्ठान चक्र
• मणिपूर चक्र
• अनाहद चक्र
• विशुद्ध चक्र
• आज्ञा चक्र
• सहस्त्रार चक्र
मूलाधार चक्र का परिचय-
शरीर के अन्दर जिस दिव्य ऊर्जा शक्ति की बात की गई है, उस ऊर्जा शक्ति को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति शरीर में जहां सोई हुई अवस्था में रहती है उसे मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित है। मनुष्य के अन्दर इस ऊर्जा शक्ति की तुलना ब्रह्माण्ड की निर्माण शक्ति से की जाती है। यही चक्र पूरे विश्व का मूल है। यह शक्ति जीवन की उत्पत्ति, पालन और नाश का कारण है। इसका रंग लाल होता है तथा इसमें 4 पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है जो पृथ्वी तत्व का बोधक है। मनुष्य के अन्दर पृथ्वी के सभी तत्व मौजूद है। चतुर्भुज का भौतिक जीवन में बड़ा महत्व है, चक्र में स्थित यह 4 पंखुड़ियां वाला कमल पृथ्वी की चार दिशाओं की ओर संकेत करता है। मूलाधार चक्र का आकार 4 पंखुड़ियों वाला है अर्थात इस पर स्थित 4 नाड़ियां आपस में मिलकर इसके आकार की रचना करती है। यहां 4 प्रकार की ध्वनियां- वं, शं, शं, सं जैसी होती रहती है। यह आवाज (ध्वनि) मस्तिष्क एवं हृदय के भागों को कंपित करती रहती है। शरीर का स्वास्थ्य इन्ही ध्वनियों पर निर्भर करता है। मूलाधार चक्र रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, भावों व शब्दों का मेल है। यह अपान वायु का स्थान है तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधीन है। मूलाधार चक्र कुण्डलिनी शक्ति, परमचैतन्य शक्ति तथा जीवन शक्ति का पीठ स्थान है। यह मनुष्य की दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक शक्ति का विकास और चैतन्यता का मूल है।
स्वाधिष्ठान चक्र-
द्वितीय चक्र उपस्थ में स्वाधिष्ठान चक्र के रूप में स्थित है। इसमें 6 पंखुड़ियों वाला कमल होता है। यह कमल 6 पंखुड़ियों वाला और 6 योग नाड़ियों का मिलन स्थान है। यहां 6 ध्वनियां- वं, भं, मं, यं, रं, लं निकलती रहती है। इस चक्र का प्रभाव प्रजनन कुटुम्ब कल्पना आदि से है। स्वाधिष्ठान चक्र के जल तत्व में मूलाधार का पृथ्वी तत्व विलीन होने से कुटुम्बी और मित्रों से सम्बंध बनाने में कल्पना का उदय होने लगता है। इस चक्र के कारण मन में भावना जड़ पकड़ने लगती है। यह चक्र भी अपान वायु के अधीन होता है। इस चक्र वाले स्थान से ही प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है तथा इसका सम्बंध सीधे चन्द्रमा से होता है। समुद्रों का ज्वार-भाटा चन्द्रमा से नियंत्रित होता है। मनुष्य के शरीर का तीन चौथाई भाग जल है। मन मनुष्य की भावनाओं के वेग को प्रभावित करता है। स्त्रियों में मासिकधर्म आदि चन्द्रमा से सम्बंधित है। उपरोक्त कार्यो का नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र से होता है। यह सभी क्रियाएं स्वाधिष्ठान चक्र के द्वारा ही सम्पन्न होती है। इस चक्र के द्वारा मनुष्य के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने की कोशिश रहती है। इसी चक्र के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करने से मन शांत होता है तथा धारणा व ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है। इससे आवाज मधुर बनती है।
मणिपूर चक्र-
नाभि वाले स्थान पर स्थित मणिपूर चक्र है तथा यह अग्नि तत्व प्रधान है। इस चक्र का रंग नीला होता है। इसमें 10 पंखुड़ियों वाला कमल होता है अर्थात यहां 10 नाड़ियों का मिलन होता है। यहां 10 प्रकार की ध्वनियां- डं, ढं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं, बं निकलती रहती हैं। समान वायु का कार्य पाचनसंस्थान द्वारा उत्पन्न रक्त एवं रसादि को पूरे शरीर के विभिन्न अवयवों में समान रूप से वितरण करना है। इस प्रकार रस अथवा भोजन का सार अंश सम्पूर्ण शरीर में पहुंचता है। यह शरीर में नाभि से हृदय तक मौजूद है तथा पाचनसंस्थान इसी के द्वारा नियंत्रित होता है। पाचनसंस्थान का स्वस्थ या खराब होना समान वायु पर निर्भर करता है। इस चक्र पर ध्यान करने से साधक को अपने शरीर का भौतिक ज्ञान होता है। इससे व्यक्ति की भावनाएं शांत होती हैं।
अनाहत चक्र-
हृदय के पास स्थित चक्र को अनाहत चक्र कहते हैं। इस चक्र में ‘वेत रंग का कमल होता है जिसमें 12 पंखुड़ियां होती है। इस स्थान पर 12 नाड़ियां मिलती है। अनाहत चक्र में 12 ध्वनियां निकलती है जो कं, खं, गं, धं, डं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं होती रहती है। यह प्राणवायु का स्थान है तथा यहीं से वायु नासिका द्वारा अन्दर व बाहर होती रहती है। प्राणवायु शरीर की मुख्य क्रिया का सम्पदन करता है जैसे- वायु को सभी अंगों में पहुंचाना, अन्न-जल को पचाना, उसका रस बनाकर सभी अंगों में प्रवाहित करना, वीर्य बनाना, पसीने व मूत्र के द्वारा पानी को बाहर निकालना प्राणवायु का कार्य है। यह चक्र हृदय समेत नाक के ऊपरी भाग में मौजूद है तथा ऊपर की इन्द्रियों का काम उसके अधीन है। यह चक्र वायु तत्व प्रधान है। प्राणवायु जीवन देने वाली सांस है। प्राण सम्पूर्ण शरीर में प्रसारित होकर शरीर को ओशजन वायु एवं जीवनी शक्ति देता है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्य, समाज और स्वयं के वातावरण में सुसंगति एवं संतुलन की स्थापना करता है। यहां पर ध्यान करने से साधक को सभी शास्त्रों का ज्ञान होता है तथा वाक्पटु, सृष्टि स्थिति संहारक, ज्ञानियों में श्रेष्ठ, काव्यामृत रस के आस्वादन में निपुण योगी तथा अनेक गुणों से युक्त होता है।
विशुद्ध चक्र-
यह चक्र कंठ में स्थित होता है जिसका रंग भूरा होता है और इसे विशुद्ध चक्र कहते हैं। यहां 16 पंखुड़ियों वाला कमल का फूल अनुभव होता है क्योंकि यहां 16 नाड़ियां आपस में मिलता है तथा इसके मिलने से ही कमल की आकृति बनती है। इस चक्र में ´अ´ से ´अ:´ तक 16 ध्वनियां निकलती रहती है। इस चक्र का ध्यान करने से दिव्य दृष्टि, दिव्य ज्ञान तथा समाज के लिए कल्याणकारी भावना पैदा होती है। इस चक्र का ध्यान करने पर मनुष्य रोग, दोष, भय, चिंता, शोक आदि से दूर होकर लम्बी आयु को प्राप्त करता है। यह चक्र शरीर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह चक्र आकाश तत्व प्रधान है और शरीर जिन 5 तत्वों से मिलकर बनता है, उसमें एक तत्व आकाश भी होता है। आकाश तत्व शून्य है तथा इसमें अणु का कोई समावेश नहीं है। मानव जीवन में प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आकाश तत्व का अधिक महत्व है। यह तत्व मस्तिष्क के लिए आवश्यक है और इसका नाम विशुद्ध रखने के कारण यह है कि इस तत्व पर मन को एकाग्र करने से मन आकाश के समान शून्य हो जाता है।
आज्ञा चक्र-
आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है। इस चक्र में 2 पंखुड़ियों वाले कमल का फूल का अनुभव होता है तथा यह सुनहरे रंग का होता है। इस चक्र में 2 नाड़ियां मिलकर कमल की आकृति बनाती है। यहां 2 ध्वनियां निकलती रहती है। यूरोपिय वैज्ञानिकों के अनुसार इस स्थान पर पिनियल और पिट्यूटरी 2 ग्रंथि मिलती है। योग शास्त्र में इस स्थान का विशेश महत्व है। इस चक्र पर ध्यान करने से सम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता आती है। मूलाधार से ´इड़ा´, ´पिंगला´ और सुषुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होते हुए इसी स्थान पर मिलती है। इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है। योग ग्रंथ में इसके बारे में कहा गया है-
इड़ा भागीरथी गंगा पिंगला यमुना नदी।
तर्योमध्यगत नाड़ी सुषुम्णाख्या सरस्वती।।
अर्थात ´इड़ा´ नाड़ी को गंगा और ´पिंगला´ नाड़ी को यमुना और इन दोनों नाड़ियों के बीच बहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहते हैं। इन तीनों नाड़ियों को जहां मिलन होता है, उसे त्रिवेणी कहते हैं। अपने मन को इस त्रिवेणी में जो स्नान कराता है अर्थात इस चक्र पर ध्यान करता है, उसके सभी पाप नष्ट होते हैं।
आज्ञा चक्र मन और बुद्धि के मिलन स्थान है। यह स्थान ऊर्ध्व शीर्ष बिन्दु ही मन का स्थान है। सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यहीं आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास व गुरू की सहायता से साधक कुण्डलिनी शक्ति के आज्ञा चक्र में प्रवेश करता है और फिर वह कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार चक्र में विलीन कराकर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है।
सहस्त्रार चक्र-
सहस्त्रार चक्र मस्तिष्क में ब्रह्मन्ध्र से ऊपर स्थित सभी शक्तियों का केन्द्र है। इस चक्र का रंग अनेक प्रकार के इन्द्रधनुष के समान होता है तथा इसमें अनेक पंखुड़ियों वाला कमल का फूल का अनुभव होता है। इस चक्र में ´अ´ से ´क्ष´ तक के सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती रहती है। यह कमल अधोखुले होते हैं तथा यह अधोमुख आनन्द का केन्द्र होता है। साधक अपनी साधना की शुरुआत मूलाधार चक्र से करके सहस्त्रार चक्र में पूर्णता प्राप्त करता है। इस स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने पर सभी शक्तियां एकत्र होकर असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता प्राप्त करती है। सहस्त्रार चक्र में ध्यान करने से उस चक्र में प्राण और मन स्थिर होता है, तो संसार के बुरे कर्मो का नाश होकर तथा योग के कारण अच्छे कर्मो के न होने से पुन: उस प्राण का जन्म इस संसार में नहीं होता। ऐसे साधक अच्छे कर्म करने और बुरे कर्मो का नाश करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। खेचरी की सिद्धि प्राप्त करने वाले साधक अपने मन को वश में कर लेते हैं, उनकी आवाज भी निर्मल हो जाती है। आज्ञा चक्र को सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जा सकता है, क्योंकि यही दिव्य दृष्टि का स्थान है। इस शक्ति को दिव्यदृष्टि तथा शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं। इस तरह असम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान ब्रह्मरन्ध्र है, क्योंकि इसी स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने से असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है।
ओंकार ध्यान
________________________________________
ओंकार ध्यान का उपनिषद् में वर्णन-
ओंकार ध्यान का वर्णन ´छान्दोग्य उपनिषद्´ में किया गया है। यह एक विशाल उपनिषद् है। ´छान्दोग्य उपनिषद्´ को 8 भागों में बांटा गया है। पहले भाग में ´ओंकार´ का ध्यानोपासना के भिन्न-भिन्न रूप में वर्णन किया गया है। वैदिक साहित्य में ´ओंकार´ का वर्णन इस प्रकार किया है कि ´ओंकार´ के ध्यान को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। इसके अनुसार मानव जीवन में ´ओंकार´ ध्यान के अतिरिक्त कोई अन्य कार्य होना चाहिए। ´ऊँ´ का महत्व का वर्णन उपनिषद् में मिलता है। इस का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ´ऊँ´ का जप (पढ़ना) तथा ´ऊँ´ गान रसों से उत्पन्न सुख या रस ही परम रस है। ´ऊँ´ का ध्यान करने से मन को शांति मिलती है।
ओंकार ध्यान के अभ्यास की विभिन्न स्थितियां-
पहली स्थिति-
• इसके अभ्यास के लिए सिद्धासन या पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं। कमर, गर्दन और पीठ को सीधा करके रखें। आंखों को बन्द कर ले और दोनों हाथों से अंजुली मुद्रा बनाकर नाभि के पास रखें। इसके बाद ´ऊँ´ मंत्र का मधुर स्वर में बिना रुके जप करें। ओंकार ध्यान में ´ऊँ´ का जप करते समय मन के साथ शरीर का अधिक प्रयोग करने से शरीर पूर्णरूप से ओंकार ध्वनि में लीन हो जाता है।
• ध्यान रखें कि ´ऊँ´ का जप करते समय अपनी पूर्ण शक्ति को ओंकार के जप में ही लगाना चाहिए। ´ऊँ´ को पढ़ने की क्रिया लयबद्ध एवं शांत भाव से करना चाहिए।
• इस तरह ओंकार का जप करने से शरीर और मन में अदृश्य रूप से एक अनुपम कम्पन होने लगता है, शरीर में उत्पन्न होने वाली यह कम्पन ही ओंकार ध्वनि की लहरें होती हैं। ´ऊँ´ से उत्पन्न होने वाली ध्वनि तरंग ही शरीर के चारों तरफ फैलने लगती है, जो शून्यता के भाव से अद्भुत रूप से ध्वनित होते हुए बाहरी वातावरण से टकराकर वापस आती है। इससे आस-पास का वातावरण शांत होता है तथा शरीर आनन्द का अनुभव करता है।
• ´ऊँ´ का जप लयबद्ध रूप से बिना रुकावट के करना चाहिए। ओंकार जप लगातार करना चाहिए जैसे- ऊँऊँऊँऊँऊँऊँ.........। ´ऊँ´ जप के बीच में कोई भी खाली जगह नहीं बननी चाहिए। इससे मन में अन्य भावनाएं उत्पन्न हो सकती है। इस तरह ओंकार ध्यान करने से उत्पन्न ध्वनि के कारण ध्यान वाले स्थान ´ऊँ´ मय हो जाता है और पुन: वही ध्वनि चारों तरफ से टकराकर वापस आकर सुनाई देने लगती है। इस ध्वनि तरंग को सुनकर रोम-रोम प्रसन्न और पुलकित होने लगता है, जिससे शरीर स्वास्थ्य एवं शांत होता है। इससे बहुत सी शारीरिक समताएं अपने आप समाप्त हो जाती है, क्योंकि इस प्रक्रिया से अन्नमयकोश एवं प्राणमयकोश दोनों प्रभावित होते हैं। इनकी शुद्धता पर ही शरीर का बाहरी तथा भीतरी स्वास्थ्य निर्भर है। इस ´ऊँ´ कार ध्यान के अभ्यास से ही सूक्ष्म शरीर का पूर्ण ज्ञान सम्भव है। ´ऊँ´ कार के जप से शरीर ´ऊँ´ रूपी जल स्नान में मग्न (लीन) होकर एक अलौकिक शांति, पवित्रता एवं शीतलता का अनुभव करता है।
• उपनिषदों के अनुसार तत्व और प्राण (जीवन) द्वारा शरीर की उत्पत्ति हुई है। अत: शरीर ध्वनि का ही अंश है। इस तरह ´ऊँ´ का जप प्रतिदिन 15 मिनट तक जोर-जोर से करना चाहिए। इससे पूरा शरीर, मन और वातावरण ´ऊँ´ मय हो जाता है।
दूसरी स्थिति-
• पहली स्थिति में ´ऊँ´ का जप करने के बाद दूसरी स्थिति में ´ऊँ´ का जप करें। इसमें ´ऊँ´ का जप मन में किया जाता है। इसके लिए आसन में रहते हुए होंठों को बन्द कर लें और जीभ को तालू से लगाकर रखें। इस स्थिति में मुख, कण्ठ एवं जीभ का उपयोग नहीं किया जाता। इस तरह की शारीरिक स्थिति बनाने के बाद ´ऊँ´ का जप मन ही मन जोर-जोर से करें। मन में बोलने व सुनने की गति पहली वाले स्थिति के समान ही लयबद्ध रखनी चाहिए। इस तरह ´ऊँ´ का जप करते समय ढीलापन या रुकावट नहीं आनी चाहिए। इस ध्यान क्रिया में ओंकार जप से उत्पन्न ध्वनि शरीर के अन्दर ही गूंजती रहती है तथा इसमें सांस लेकर रुकने की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। इस क्रिया को बिना रुके लगातार करते रहें
• ´ऊँ´ मंत्र से उत्पन्न ध्वनि को जप के द्वारा शरीर के अन्दर इस तरह भर दें कि सिर से पैर तक ´ऊँ´ ध्वनि से उत्पन्न कम्पन अपने-आप ´ऊँ´ मंत्र को दोहराने लगें। इस तरह मन ही मन ´ऊँ´ मंत्र का जप एकांत में बैठ कर जितनी देर तक सम्भव हो उतनी देर तक अभ्यास करें। ´ऊँ´ जप के बीच में कोई खाली स्थान न छोड़े, क्योंकि इससे मन में अन्य विचार उत्पन्न हो सकता है। इसलिए ´ऊँ´ मंत्र का जप लगातार करना चाहिए। इस तरह ओंकार ध्वनि का ध्यान करने से धारणा शक्ति बढ़ती है और समाधि के लिए अत्यन्त लाभकारी होती है।
• मन ही मन में ´ऊँ´ का जप करते समय जीभ का उपयोग नहीं करना चाहिए। इस क्रिया में शरीर को स्थिर व मन को शांत रखना चाहिए तथा ´ऊँ´ ध्वनि से निकलने वाली तरंगों का अनुभव करना चाहिए। इसमे ध्वनि तरंग आंतरिक शरीर व मन से टकराकर अन्दर ही अन्दर गूंजती रहती है। पहली स्थिति में ´ऊँ´ जप से शरीर शुद्ध होकर मन ही मन जप के योग्य बनता है और मन ही मन ´ऊँ´ जप करके मन शुद्ध व निर्मल बनता है, जिससे बुरे मानसिक विचार दूर होते हैं। इस ध्यान से शरीर और मन दोनों ही ´ऊँ´ मय हो जाते हैं। इससे मन शांत होकर ईश्वर शक्ति का ज्ञान प्राप्त करता है और व्यक्ति समाधि की प्राप्ति करता है।
• इस क्रिया का अभ्यास प्रतिदिन 15 मिनट तक करना चाहिए। इससे मनोमयकोश एवं विज्ञानमयकोश शुद्ध होता है। उत्तरोत्तर कोश के शुद्ध हो जाने पर आनन्दमयकोश द्वारा परमानन्द की प्राप्ति होने लगती है। अन्नमयकोश एवं प्राणमयकोश रोगों को शरीर में प्रवेश नहीं करने देते जिससे स्थूल शरीर स्वस्थ और सजग बना रहता है। मनोमयकोश एवं विज्ञानमयकोश की शुद्धता के फल स्वरूप सूक्ष्म शरीर का बोध होता है। इस से सूक्ष्म शरीर में किसी भी प्रकार का दोष प्रवेश नहीं कर पाता। उपनिषदों के अनुसार दोष सूक्ष्म रूप ही रोग का कारण है। ´ऊँ´ मंत्र का मानसिक जप व ध्यान करने से शरीर के 5 कोशों का ज्ञान होता है जिससे तुरीय अवस्था में चेतना तत्व का ज्ञान होता है। यह चेतना तत्व शरीर का मूल स्रोत है। जब ´ऊँ´ कार ध्यान का अभ्यास करते हुए व्यक्ति को कारण, स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर का ज्ञान प्राप्त होने के बाद व्यक्ति ज्योति में लीन हो जाता है तो इसी अवस्था विशेष को निर्बीज समाधि कहते हैं।
तीसरी स्थिति-
• इस क्रिया के अभ्यास में मन के द्वारा ´ऊँ´ का जप करना बन्द कर दिया जाता है और केवल आंतरिक भाव से ´ऊँ´ के जप से उत्पन्न ध्वनि का अनुभव किया जाता है। इस क्रिया में ऐसा अनुभव करें कि ´ऊँ´ ध्वनि का उच्चारण आंतरिक शरीर में अपने आप हो रहा है। इस तरह मन में विचार करते हुए ध्यान से आपको अनुभव होने लगेगा की शरीर के अन्दर ´ऊँ´ की सूक्ष्म ध्वनि गूंज रही है। इस तरह का अनुभव होने लगेगा की सभी जगह ´ऊँ ऊँ´ का जप हो रहा है। ´ऊँ´ ही ´ऊँ´ की ध्वनि सुनाई दे रही है। उसी ध्वनि पर अपने ध्यान को लगाएं।
• ´ओंकार ध्वनि तरंग ध्यान का जप में पहले ध्याता, ध्यान और ध्येत तीनों मौजूद होते हैं। परन्तु पहली स्थिति में ´ओंकार जप के द्वारा ध्याता शरीर से हट जाता है। फिर दूसरी स्थिति में ध्याता को मानसिक जप द्वारा मन से भी हटाया जाता है। इन दोनों प्रक्रिया में ध्याता पूर्ण रूप से गायब (लोप) हो जाता है। केवल ध्यान और ध्येय बचा रह जाता है। तीसरी स्थिति में ´ऊँ´ का जप करने से केवल ध्येय ही बचा रह जाता है जो ´ऊँ´ कार ध्यान साधना विधि का फल है। इसलिए ध्यान के लिए ´ऊँ´ से अदभुत कोई मंत्र नहीं है।
• इस ´ऊँ´ ध्वनि तरंग ध्यान की विधि में पहली 2 अवस्थाओं में ´ऊँ´ को बोलकर और मन के द्वारा जप किया जाता है। परन्तु तीसरी स्थिति में आंतरिक भाव से ´ऊँ´ मंत्र का केवल अपने अन्दर अनुभव किया जाता है। पहली 2 स्थितियों तक कर्ताभाव से हम ध्यान करते हैं क्योंकि शरीर और मन कर्तव्य का हिस्सा है। परन्तु तीसरी स्थिति में आंतरिक भाव से मंत्र को सुनते हैं। इससे सिर्फ शुद्ध चेतन्य बचती है। वही सर्वस्थित ´ओंकार ब्रह्म है। यही ´ओंकार ध्यान साधना विधि है।
• इस तरह प्रतिदिन ´ओंकार ध्यान साधना का अभ्यास करें। इस आसन में बैठकर पहले ´ऊँ´ मंत्र को पढ़कर अभ्यास करें, दूसरे में मन ही मन ´ऊँ´ को पढ़ें और तीसरी अवस्था में केवल अपने भाव के द्वारा उस ध्वनि तरंग को अनुभव करें। अभ्यास के बाद अपने आप को ध्यानावस्था से मुक्त करके बाहरी संसार का अनुभव करें, शरीर तथा स्थान का ध्यान करें। अपने कामों का ध्यान करें। इसके बाद ईश्वरकृत प्राकृतिक दृश्यों की कल्पना करें- ´´मेरे चारों ओर हरे-भरे पेड़-पौधे और फूलों-फलों का पेड़ है। मै जिस स्थान पर ध्यान का अभ्यास कर रहा हूं वहां के स्वच्छ व शांत वातारण में स्वच्छ पानी के बहाव वाली नदी बह रही है तथा एक सुन्दर पर्वत है जिसके बीच बैठकर मैं यह ध्यान का अभ्यास कर रहा हूं।
• इस तरह के प्राकृतिक दृश्य का अनुभव करने से शरीर स्वस्थ और मन प्रसन्न होता है। ऐसा अनुभव करने के बाद दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर चेहरे पर तथा आंखों पर लगाएं। इसके बाद आंखों को हथेलियों से ढक दें और फिर खोलें। आसन त्याग करने के बाद 5 से 10 मिनट तक पीठ के बल लेटकर श्वास क्रिया करें। श्वसन क्रिया के बाद कुछ क्षण तक मौन रहना चाहिए और फिर अपने दैनिक कार्यों पर लौट जाना चाहिए।
• इस प्रकार ओंकार ध्यान साधना का अभ्यास एक महीने तक फल की इच्छा के बिना करना चाहिए। इस ध्यान साधना का अभ्यास करना पहले कठिन होता है परन्तु प्रतिदिन अभ्यास करने से यह आसानी से होने लगता है। इस क्रिया में सफलता प्राप्त करने के लिए सबसे पहले मन को अपने वश में करके एकाग्र करना चाहिए। ध्यान क्रिया में जल्दबाजी करने से लाभ के स्थान पर हानि होने की सम्भावना रहती है और मन में इससे ऐसी भावना पैदा होना ही इस की सफलता में सबसे बड़ी बाधा है। इसलिए इस का अभ्यास को धैर्य व साहस के साथ करना चाहिए।
• यदि ´ऊँ´ ध्यान साधना विधि का अभ्यास फल की इच्छा के बिना किया जाएं तो कुछ महीने में ही सफलता प्राप्त हो सकती है। इस क्रिया में ओंकार मंत्र को अंतर आत्मा में इस तरह चिंतन किया जाता है कि कुछ समय में ही व्यक्ति को दिव्य शक्ति व ज्ञान प्राप्त होने लगता है।
• भारतीय आस्तिक दर्शनों में ओंकार मंत्र को बीज कहा गया हैं और जिस तरह बीज को जमीन से निकाल लेने पर पेड़ नहीं बनते, उसी तरह ओंकार मंत्रों को अंतर आत्मा में पूरी श्रद्धा के साथ धारण न करने पर सफलता प्राप्त नहीं होती। परन्तु अंतर मन के साथ इस साधना को करने से अच्छा परिणाम मिलता है।
• उसी ब्रह्म को उपनिषदों में नेति कहा गया है। जब ध्यान में मन लीन होने लगता है तो संसार स्वत्नवत हो जाता है और ध्यान करने वाला व्यक्ति साक्षी हो जाता है। इस तरह ध्यान करने से मनुष्य को ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त होता है और उसे अनुभव होता है कि यह संसार एक स्टेज है और जीवन एक अभिनय। यह ज्ञान ही जीवन मुक्ति है और कैवल्य या परम पद है।
• महर्षि पतांजलि ने कहा है कि जब मनुष्य अपने स्वरूप को जान लेता है तो वह सुख की कामना नहीं करता और न ही दु:ख से बचाव की ही कामना करता है। क्योंकि इस ध्यान साधना से उसे ज्ञान हो जाता है कि सुख और दु:ख केवल बाहरी साधना है। ओंकार साधना से बाहरी सम्बंध टूट जाते है और मन अंतर आत्मा में स्थित और स्थिर हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ व मोह का नाश होकर अन्दर केवल आनन्द ही आनन्द रहता है। वह ईश्वर के चिंतन में लीन होने लगता है। ´ऊँ´ मंत्र उसके श्वास-प्रश्वास में बहने लगता है। ´अणेरणीयान महतो महीयान´ अर्थात ओंकार ध्यान साधना के द्वारा व्यक्ति संसार के सभी पदार्थों में ईश्वर का अनुभव करने लगता है। उसे यह ज्ञान हो जाता है कि संसार के सभी वस्तुओं में ब्रह्म मौजूद है। इस कैवल्य-अवस्था में आरूढ़ व्यक्ति में संसारिक वस्तुओं के प्रति इच्छाओं का नाश हो जाता है तथा मन में किसी तरह की कोई इच्छा नहीं रह जाती। इस तरह मन की इच्छा का नाश होने के कारण व्यक्ति संसार के जीवन, मरण के चक्र से मुक्त होकर हमेशा के लिए ईश्वर के पास चला जाता है। इसके बाद आत्मा का न कभी जन्म होता है और न ही कभी मृत्यु। जीवन और मन की क्रिया तब तक होती रहती है, जब तक इच्छाओं का नाश नहीं हो जाता। मनुष्य अपने जीवन में जिस वस्तु या सुख आदि की कामना करता है उसका उसी इच्छाओं को लेकर नए रूप में जन्म लेता है। ओंकार ध्यान साधना से सम्पूर्ण मायावी आकांक्षा रूपी बीज बन जाती है। ओंकार ध्यान साधना से भी सभी महत्वकांक्षाओं का नाश होकर केवल ईश्वर की इच्छा रह जाती है। तत्त्ववेता ऋषियों ने भी उपरोक्त जन्म मरण के कारणों को स्वकथन द्वारा पुष्ट किया है-
मृतिबीजं भवेज्जन्म जन्मबीजं तथा मृति:।
घटीयंत्रवदाश्रान्तो बम्भ्रमीत्य निशंनर:।।
अर्थात जन्म मृत्यु का बीज है और मृत्यु जन्म का बीज है। मनुष्य निरन्तर घड़ी की सुई की तरह बिना आराम किए बार-बार जन्म और मरण के चक्कर में घूमता रहता है। अत: ओंकार ध्यान साधना से मानव जीवन के उस चक्र से मुक्ति मिल जाती है।


कुण्डलिनी शक्ति
________________________________________
परिचय-
योग, ग्रंथों, वेदों, उपनिषदों तथा तंत्रों में कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन किया गया है। योग के अभ्यास से जो अनेक प्रकार की शक्ति प्राप्त होती है, उन सभी शक्तियों का सम्बंध कुण्डलिनी शक्ति से है। योगशास्त्रों में इस कुण्डलिनी शक्ति का स्थान मूलाधार चक्र बताया गया है। मूलाधार चक्र में यह शक्ति सोई हुई अवस्था में रहती है तथा योग के द्वारा जब कोई व्यक्ति इस शक्ति को जगाता है, तब उसे विभिन्न प्रकार की दिव्य शक्तियां प्राप्त होती है।
कुण्डलिनी शक्ति का स्थान-
गुह्य देश से 2 अंगुली ऊपर और लिंग मूल से 2 अंगुली नीचे ´मूलाधार चक्र´ में यह कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में स्थित होती है। योग में कुण्डलिनी का वर्णन करते हुए कहा गया है-
पश्चिमोभिमुखी योनिर्गुद मेढ़ान्तरालगा।
तत्र कन्दं समाख्यातं तत्रास्ते कुण्डलिनी सदा।।
संवेष्टा सकला नाड़ी: सार्ध-त्रि कुटिल्याकृत:।
मुखे निवेश्य सा पुच्छ: सुषुम्ना-विवरे स्थिता।।
गुदा और लिंग के बीच में पीछे की ओर मुंह करके स्थित ´योनि मण्डल´ है। इस योनि मण्डल को ´कन्द´ भी कहते हैं। इसी ´कन्द´ के बीच में कुण्डलिनी शक्ति सभी नाड़ियों को लपेट कर साढ़े 3 बार गोलाकर घूमकर सर्प की तरह अपनी पूंछ को मुंह में डालकर सुषुम्ना मार्ग को रोककर सोई हुई अवस्था में स्थित रहती है। जब यह ´मूलाधार´ चक्र से जागृत होती है, तो यह एक-एक करके स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध तथा आज्ञा चक्र समेत 6 चक्रों को जागृत करती हुई सहस्त्रार में पहुंच जाती है।
ब्रह्माण्ड में जितनी शक्ति मौजूद है, उन सभी शक्तियों को भगवान ने मनुष्य के शरीर रूपी ´पिण्ड´ के मूलाधार में एकत्रित कर दिया है। परंतु सुषुम्ना नाड़ी का मुख त्रिकोण ´योनि मण्डल´ के बीच स्थान पर है, जहां से मेरूदण्ड के भीतर से होती हुई ऊपर की ओर चलती है। साधारण अवस्था में सुषुम्ना बन्द रहती है, जिसमे कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में रहती है। प्राणावायु केवल सुषुम्ना के दाएं और बाएं से ऊपर की ओर जाती हुई ´इड़ा´ और ´पिंगला´ नाड़ी से होते हुए चक्रों को स्पर्श करती हुई ऊपर जाती है। जिससे प्राणवायु पूरे शरीर में हमेशा प्रवाहित होता रहती है।
इसी त्रिकोण ´योनिमण्डल´ में एक अति सूक्ष्म विद्युत के समान दिव्य शक्ति वाली नाड़ी लिपटी हुई है जिसे सर्पिण या कुण्डलिनी कहते हैं। यह नाड़ी जब तक सोई हुई अवस्था में रहता है, तब तक कोई भी शक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। इस जागृत करने के लिए योग साधना करना पड़ता है। इसके जागरण के बिना शरीर के द्वारा होने वाले अनेक कार्य बाहर से दिखाई नहीं देता।
इस शक्ति के बारे में वैज्ञानिक और योग गुरूओं का मत-
इस कुण्डलिनी शक्ति के विषय में योग गुरूओं को विज्ञान से अधिक जानकारी है तथा वह सभी जो इस शक्ति को मानते हैं, उन्होंने अपने अन्दर इस शक्ति को वास्तविक रूप से अनुभव किया है। कुण्डलिनी शक्ति को विज्ञान भी मानता है, परंतु यह शक्ति दिखाई न देने के कारण विज्ञान इस बात को स्पष्ट नहीं कर पाते की क्या कुण्डलिनी शक्ति है? आज के शरीर वैज्ञानिक (फिजियोलोजिस्ट) अभी तक इस बात को जान नहीं पाएं हैं कि प्राचीन यूनान, रोम आदि देशों के तत्व ज्ञाता शरीर के अन्दर मौजूद इन शक्तिओं से परिचित थे या नहीं।
प्लोटों और पिथागोरस जैसे आत्मदर्शी (आत्मा को जानने वाले) विद्धानों ने शरीर के इन शक्तियों के बारे में इस तरह लिखा है-
नाभि के पास एक ऐसी अदभुत शक्ति मौजूद है, जो किसी साधना के द्वारा जागृत होकर मस्तिष्क में पहुंच जाती है और मस्तिष्क में तीव्र बुद्धि का विकास करती है, जिससे मनुष्य के अन्दर दिव्य शक्तियां उत्पन्न होने लगती है। यह शक्ति कोई अन्य वस्तु नहीं बल्कि कुण्डलिनी शक्ति होती है। कुण्डलिनी शक्ति के जागने पर ही मनुष्य परमात्मा के सूक्ष्म स्वरूप का दर्शन कर पाता हैं तथा वह संसार में अनेक प्रकार के चमत्कारी कार्यो को करने में सफलता प्राप्त करता है।
कुण्डलिनी शक्ति के विषय में आज के विज्ञान से अधिक जानकारी प्राचीन योगियों को थी। अत: आज के शरीर विज्ञान की इच्छा कुण्डलिनी शक्ति के विषय में बढ़ती जा रही है। वे जानना चाहते है कि क्या प्राचीनकाल के विद्वानों को शरीर की बनावट के बारे में जानकारी थी या नहीं? यदि प्राचीन काल के विद्वानों को शरीर की आंतरिक रचना के बारे में ज्ञान था, तो उसकी तुलना आज के शरीर विज्ञान के ज्ञान से करने पर उसे कौन सा स्थान प्राप्त होना चाहिए। शरीर-रचना-विज्ञान से सम्बंधित ज्ञान के बारे में अनेक प्रश्न उठते हैं जैसे-
• प्राचीन शरीर विज्ञान का ज्ञान और आज का शरीर विज्ञान का ज्ञान किस स्थान तक एक-दूसरे में समानता रखता है?
• इस विषय से सम्बंधी प्राचीन ज्ञान की क्या विशेषता है?
• किन-किन बातों में हम प्राचीन विज्ञान को, आज के विज्ञान से अलग और अच्छा कह सकते हैं?
• प्राचीन ऋषियों ने इस ज्ञान को कैसे प्राप्त किया था?
• उनके द्वारा बनाई गई पद्धति को अपनाकर क्या हम भी वह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं?
ऐसे अनेक प्रश्न उन लोगों के सामन उठते हैं जो शरीर की रचना के बारे में जानने की इच्छा रखते हैं। यह खोज करने का विषय होते हुए भी स्पष्ट है कि चाहे जिस प्रकार से भी हो, यह ज्ञान निश्चित रूप से प्राचीनकाल के ऋषियों को था, जो कि आधुनिक विज्ञान से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन योग शास्त्रों में किया गया है। योगाभ्यास के लिए शरीर विषय का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है।
कुण्डलिनी शक्ति के विषय में कहा गया है कि यह एक महान शक्ति है जो मनुष्य के शरीर की नाभि में स्थित सूर्य चक्र में सुप्तावस्था में रहती है। आज के समय में यह सौभाग्य ही है कि लोग कुण्डलिनी शक्ति के विषय में चेतना विज्ञान के रूप में जानने की इच्छा रखते हैं। योग ऋषियों ने कुण्डलिनी को अदृश्य और चमत्कारिक शक्ति कहा है। परंतु कुण्डलिनी शक्ति का अध्ययन एवं विश्लेषण करें तो पाएंगें कि इसका सम्बंध भौतिक शरीर से भी है, क्योंकि कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए स्थूल शरीर में स्थित शट्चक्रों का सहारा लिया जाता है। कुण्डलिनी शक्ति रूपी चेतना को शिव और आधार को शक्ति कहा गया है। गोरक्ष ऋषि ने इस शक्ति को इस प्रकार कहा है-
षट्चक्रं शोडशाधारं त्रिलक्ष्यं व्योम पंचकम्।
स्वदेहे ये न जानन्ति कथं सिद्धयन्ति योगिन:।।
गोरक्ष ऋषि के अनुसार शरीर में मौजूद षट्चक्रों (7 चक्र), 16 आधारों, 3 लक्ष्यों और 5 शरीर पंचकोशों के ज्ञान के बिना योगाभ्यास कर पाना सम्भव ही नहीं है। कुण्डलिनी शक्ति का वर्णन ´योग चूड़ामणि उपनिषद्´ में भी किया गया है। शरीर में मौजूद षट्चक्र आदि विभिन्न सूक्ष्म अंगों के बारे में बताया गया है, जिसे आज के वैज्ञानिक यंत्रों से भी देखा जाना सम्भव नहीं है। षट्चक्र तथा कुण्डलिनी शक्ति आदि से यह स्पष्ट होता है कि हमारे ऋषि-मुनियों को शरीर की रचना और शरीर विज्ञान के बारे में पूर्ण जानकारी थी। योग शास्त्रों में स्थूल शरीर के ज्ञान को अन्नमयकोश कहा गया है तथा योग में शरीर के ज्ञान का बहुत महत्व था। प्राचीन काल के आचार्यो को शरीर की रचना तथा उसके विभिन्न अंगों के बारे में पूर्ण और विस्तृत ज्ञान समाधि के द्वारा प्राप्त था और वे यही ज्ञान अपने शिष्यों को दिया करते थे। इसके अतिरिक्त अन्य ग्रंथों में विच्छेदन के द्वारा भी शरीर का ज्ञान प्राप्त करने के बारे में बताया गया है तथा तक्षशिला आदि शिक्षा केन्द्रों में शल्य-चिकित्सा की शिक्षा पद्धति होने के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं।
योग में जिस कुण्डलिनी शक्ति व चक्रों को बताया गया है, उसे आज के वैज्ञानिक तरीके से शरीर को काटकर उसका अध्ययन करने की कोशिश की जा रही है परंतु इससे वैज्ञानिकों को शास्त्रों में बताए गए स्थान पर चक्र या कुण्डलिनी आदि कुछ भी प्राप्त नहीं होता। परंतु शास्त्रों में इसका वर्णन बहुत गम्भीर और महत्वपूर्ण ढ़ंग से किया गया है। इसलिए शरीर में मौजूद सूक्ष्म शक्ति तथा चक्रों के शरीर पर अधिकार को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्राचीन योग विज्ञान के द्वारा बताये गये शरीर की रचना तथा समाधि के द्वारा प्राप्त होने वाले सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों का ज्ञान प्राप्त करने में आज के शरीर-रचना-विज्ञान अभी भी असमर्थ हैं। शरीर में मौजूद दिव्य शक्ति व चक्र अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इसे बाहर आंखों से या यंत्रों की सहायता से देख पाना सम्भव नहीं है। आज के विज्ञान के आधार पर जिसका ज्ञान शरीर-रचना-विज्ञान शास्त्र को प्राप्त नहीं है, वह नहीं है, ऐसे कहना बिल्कुल गलत है।
योग शास्त्रों में चक्र और कुण्डलिनी शक्ति के आधार पर ही योगाभ्यास और योग क्रिया आदि का निर्माण किया गया है। अत: योग शास्त्रों में विर्णनत इन शक्ति व चक्रों को काल्पनिक और अस्तित्वहीन कहना अज्ञानता है। अभी तक शरीर के विषय में हमारे वैज्ञानिक के पास अधूरा ज्ञान है। विज्ञान के द्वारा अन्नमयकोश के सभी सूक्ष्मतम अंगों (छोटे अंगों) का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सका है। भारतीय योग क्रिया के द्वारा प्राचीन योगी शरीर के सूक्ष्म अंगों का ज्ञान अपने आप प्राप्त कर लेते थे। अष्टांग योग की साधना विधि से समाधि अवस्था प्राप्त करने से योगी को समाधि प्रज्ञा प्राप्त होती है। मनुष्य के अन्दर यह शक्ति उत्पन्न होने से उसे दिव्य ज्योति अर्थात दिव्य दृष्टि प्राप्त हो जाती है। योग के द्वारा दिव्य दृष्टि प्राप्त होने के बाद ही व्यक्ति शरीर के आंतरिक सूक्ष्म अंगों को देख पाने में समर्थ होता है। ध्यान के द्वारा ही योगी अन्नमयकोश में स्थित शक्ति केन्द्र को जागृत करके योग के मार्ग में अत्यधिक ऊंचाई तक पहुंच सका है। इस शक्ति को प्राप्त करने के लिए और इसके द्वारा शरीर को अत्यधिक प्रभावित करने के लिए योग शास्त्रों में शोधन क्रिया, आसन, मुद्रा तथा प्राणायाम की क्रिया को बनाया गया है। इन क्रियाओं के अभ्यास से योग मार्ग पर चलते हुए समाधि आदि दिव्य शक्ति को प्राप्त करना आसान हो जाता है।
मनुष्य संसार का सबसे बुद्धिमान जीव है तथा इसकी इच्छा भी अत्यंत है। अत: मनुष्य को सबसे पहले अपने अस्तित्व के बारे में जानने की इच्छा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अपने अस्तित्व के बारे में जानकर उसे प्राप्त करने की कोशिश करना स्वाभाविक है। अत: यौगिक क्रियाओं और वैज्ञानिक क्रियाओं दोनों के अनुसार शरीर की रचना के विषय में जो बताया गया है उसका मूल केन्द्र बिन्दु मन की इच्छा है, साधनाओं का मूल कारण भी शरीर की रचना के बारे में जानना तथा सभी योग क्रियाओं का लक्ष्य भी यही है। वास्तव में अपने अस्तित्व को जानना ही मानव का परम कर्त्तव्य है। संख्या योग में प्रकृति से अलग चेतन्य (जागृत) स्वरूप ही जीव का स्वरूप माना गया है। इसलिए योग क्रियाओं के द्वारा व्यक्ति दिव्य ज्ञान प्राप्त करके प्रकृति के बन्धन से हमेशा के लिए मुक्त होकर संसार के जीवन मरण अथवा शरीर धारण करने के निरंतर चलने वाले चक्र से छूट जाते हैं। इसे ही योगशास्त्र या धर्म शास्त्रों में मोक्ष कहते हैं। परंतु इसे हम जीवन की अंतिम क्रिया नहीं मान सकते। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार मनुष्य ब्रह्म व शिव का ही रूप है और जब तक व्यक्ति का जीवन शिव रूप नहीं हो जाता, तब तक जीवन के पूर्ण लक्ष्य की पूर्ति नहीं मानी जा सकती।
संसार के सभी जीव शिव रूप ही है तथा ब्रह्माण्ड में कार्य करने वाली सभी शक्तियां शिव ही है। शिव ही शक्ति है और शक्ति ही शिव है। दोनों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। शिव ने अपनी अनेक शक्तियों में से एक शक्ति के रूप में विश्वरूप धारण किया है। यह महाशिक्त ही मनुष्य की नाभि के पास सूर्यचक्र में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति है। इसलिए मनुष्य के शरीर का अत्यंत महत्व है। अत: ऐसे भी कह सकते हैं कि जो ´पिण्ड´ में है, वही ब्रह्माण्ड में है। इसलिए सहस्त्रार अनादि-अनन्त शिव भगवान ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाली ´आदि शक्ति´ के साथ एक होकर इस संसार में मौजूद है। योग के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति के जागृत करने पर यह ऊर्जा शक्ति सुषुम्ना से होते हुए अपने रास्ते में आने वाले सभी चक्रों का भेद (जागृत) करते हुए अंत में सहस्त्रार में पहुंचकर शिव में लीन होकर स्वयं शिव रूप हो जाती है। अत: जब तक शरीर के अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति का जागरण नहीं हो जाता तब तक परम परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।


कुण्डलिनी शक्ति को अग्नि व सूर्य के समान बताया गया है। शरीर में कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने पर अत्यधिक गर्मी उत्पन्न होती है। कुण्डलिनी जागरण योग साधना के द्वारा किया जाता है और इस शक्ति को स्थाई रखने के लिए हमेशा अभ्यास और पवित्र भावनाओं की आवश्यकता पड़ती है। हमेशा योगाभ्यास करने से यह शक्ति सुषुम्ना से होकर सभी चक्रों में ऊपर की ओर प्रवाहित होती रहती है। अगर नियमित अभ्यास न किया जाए तो शक्ति ऊपर के चक्रों से उतरकर पुन: निम्न चक्र मूलाधार में स्थित हो जाती है। इसके निरंतर अभ्यास से कुछ शक्तियां अपने आप ही प्राप्त हो जाती है। इन शक्तियों को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति को अहंकार, क्रोध, लोभ आदि नहीं करना चाहिए तथा अपनी साधना से प्राप्त शक्ति को गुप्त ही रखना चाहिए।
योग संसार का सबसे पुराना ज्ञान है। ध्यान बिन्दु उपनिषद्, ब्रह्म बिन्दु उपनिषद्, मैत्री योग तत्व और योगपरक उपनिषदों में कुण्डलिनी को मंत्रात्मक तथा क्रियात्मक दोनों ही रूप में बताया गया है। लिंग पुराण, अग्नि पुराण तथा देवी भागवत पुराणों में तत्वों एवं चक्रों का वर्णन किया गया है। देवी भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और विज्ञान शक्ति तीनों क्रमश: तम, रज, सत् गुणों के प्रतीक है। इनकी साधना से कुण्डलिनी जागरण होकर आध्यात्मिकता की प्राप्ति होती है। योग में कहा गया है कि कुण्डलिनी शक्ति वशिष्ठ में रसिकता भाव संवेदना आदि अनेक कलाओं के रूप में विकासित होते हुए जीवन को अच्छा बना देती है। कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का प्रभाव पूरे शरीर पर दिखाई देने लगता है तथा व्यक्ति को आलौकिक शक्ति का अनुभव होने लगता है। चेहरे पर चमक व तेज दिखाई देने लगता है। बौद्ध साहित्य और उनके अभिलेखों से यह बाते सामने आई है कि तान्त्रिक उपासना का सर्वोच्च काल भगवान बुद्ध का समय था। जिसमे बाद में कुछ ´वैष्णव´ और कुछ लोग ´शैव´ कहलाएं। उस काल में एक ऐसा शास्त्र तंत्र बना जिसमें षट्चक्र तथा कुण्डलिनी साधना नामक भौतिक योग क्रिया विकासित हुई।
मनुष्य के अन्दर कुण्डलिनी जागरण होने के बाद उसके लिए कोई भी कार्य असम्भव नहीं रहता। अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति ´यद् ब्रह्माडे तत् पिण्डे´ के अनुसार होती है। ध्यान के द्वारा अपने मन को अन्तर आत्मा में लगाना और अपनी अतिन्द्रिय शक्ति को जागृत कर कल्पना करना की विश्व का निर्माण जैसा हुआ है, वैसे ही हमारे शरीर का भी निर्माण हुआ है। इस तरह की इच्छा रखते हुए व्यक्ति अनेक चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाता है। इस शक्ति के जागरण से ही समस्त सिद्धियां प्राप्त होती है। इस चमत्कारी विद्या को जानने के बाद पतांजलि ´योग दर्शन´ में विर्णत समस्त विभूति, परिचित ज्ञान, पूर्व जन्म का ज्ञान, दूर स्थित वस्तुओं के बारे में जानने वाला, दूरदर्शी (भविष्य को जानने वाला) ज्ञान, सभी लोकों का ज्ञान, तारा-ग्रहों का ज्ञान, शरीर का ज्ञान, भूख-प्यास को रोकना तथा हवा में उड़ना आदि का ज्ञान, साधना पाद में विर्णत अहिंसा भाव, पृथ्वी के रत्नों का प्रकट होना, मैत्री, इष्ट साक्षात्कार तथा समाधि आदि योग साधना अपने आप प्राप्त हो जाता है।
महर्षि पतंजलि के अनुसार सिद्धियां 5 प्रकार की होती हैं-
जन्मोषधिमन्त्र: तप: समाधिजा: सिद्धय:।।
जन्म से, औषधि से, मंत्र से, तप और समाधि से ये सिद्धियां प्राप्त होती है। पतांजलि ´योग दर्शन´ में कहा गया है कि योगियों को सिद्धियों के पीछे नहीं पड़ना चाहिए। सिद्धियां अपना कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं रखतीं। ध्यान के अभ्यास में जब व्यक्ति का मन ध्यान करता है, तब उसके पिछले संस्कार स्वभाविक रूप से उत्पन्न होता है। अत: बिना डरे निर्भय होकर उसका ध्यान करते रहें। यदि कोई अभ्यास करने वाला अपने पिछले संस्कार के कारण इनकों वास्तविक रूप से ही अनुभव करे और अपना अनिष्ट समझकर उसे हटाना चाहे तो उसके हटाने की इच्छा करते ही अथवा ´ऊं´ के जप से तुरन्त वे अदृश्य हो जाएंगे। फिर भी यदि अभ्यासी सिद्धियों तथा शक्तियों को प्राप्त करने के उद्देश्य से साधना करना चाहे तो चक्रों में दी गई विभिन्न बातों को विभिन्न चक्रों पर ध्यान करने से उसे सिद्धियां मिल सकती है। इन सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए मार्गतंत्रिका है, जो अधिक लम्बा रास्ता है। आध्यात्मिक उन्नति तथा आलौकिक शक्तिओं को प्राप्त करने के लिए इन बातों पर ध्यान नहीं देकर केवल इन स्थानों को केन्द्र बनाकर अन्दर प्रवेश करना चाहिए। ऐसे अभ्यासियों के जो कुछ समझ में आता है, उसे द्रष्टि रूप से देखना होता है क्योंकि उनका लक्ष्य परमात्मा तत्व है।
नाक के बाईं छिद्र से ´इड़ा´ नाड़ी चलती है, जिसे चन्द्र नाड़ी कहते हैं। इसका रंग शुभ होता है। नाक के दाएं छिद्र से ´पिंगल´ नाड़ी चलती है, जिसे सूर्य नाड़ी कहते हैं। इसका रंग खून की तरह होता है। इन दोनों नाड़ियों की वक्रगति से 5 चक्र बनते हैं अर्थात दोनों नाड़िया जहां आपस में मिलती है, वहां चक्र बनते हैं। जब यह दोनों नाड़ियां समान गति से चलती है, तब सुषुम्ना नाड़ी में इन दोनों नाड़ियों का लय होता है। दोनों के मिलने वाले स्थान पर जब वायु का दबाव पड़ता है, तब कुण्डलिनी जागृत होकर सुषुम्ना में प्रवेश करती है। कुण्डलिनी सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करके सहस्त्रार चक्र में पहुंचकर जब शांत हो जाती है तब उस अवस्था को तंत्र योग में समाधि कहते हैं। समाधि तभी प्राप्त होती है, जब व्यक्ति अपने अन्दर की संसारिक वस्तुओं की इच्छा को छोड़ देता है। व्यक्ति का मन शून्य होने पर कुण्डलिनी शक्ति सुषुम्ना नाड़ी से होते हुए सहस्त्रार में जाकर समाधि की स्थिति प्राप्त कराती है।
कुण्डलिनी जागरण योग की परम सिद्धि है और इन सिद्धियों को प्राप्त करना आसान नहीं है। परंतु योग पर विश्वास रखने वाले व्यक्ति श्रद्धा, विश्वास, धैर्य तथा गुरू की सहायता से कुण्डलिनी शक्ति को जागृत करने में सफलता प्राप्त कर पाते हैं। ऐसे सभी व्यक्ति जिनमें एक खास प्रकार के चमत्कारी गुणों को देखा जाता है, वे सभी किसी न किसी चक्र से प्रभावित रहते हैं अर्थात उससे सम्बंधित चक्र का उसमें जागरण हुआ होता है। जैसे मूलाधार चक्र से प्रभावित बच्चे अपनी असुरक्षा की भावना से ग्रस्त रहते हैं तथा स्वाधिष्ठ चक्र से प्रभावित व्यक्ति वीर, राजा, काल तथा साहित्य प्रेमी होते हैं। इसी प्रकार मणिपूर चक्र से प्रभावित व्यक्ति धर्म-अधर्म को समझने वाले, दानी, परोपकारी तथा कर्त्तव्य परायण होते हैं। अनाहत चक्र से प्रभावी व्यक्ति राजयोगी एवं स्थिर प्रज्ञा होते हैं। योग शास्त्रों में कुण्डलिनी शक्ति की प्राप्ति करने से पहले गुरू के द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए योग के अष्टांग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि के ज्ञान तथा अभ्यास द्वारा सफलता प्राप्त होने के बाद ही कुण्डलिनी शक्ति को प्राप्त किया जा सकता है।

चक्र ध्यान
________________________________________
परिचय-
संसार में मौजूद सभी भौतिक वस्तुओं के मोह को त्यागकर शरीर को स्वस्थ रखते हुए मन में आध्यात्मिक विचार उत्पन्न करने तथा सूक्ष्म शक्ति (ईश्वर) का दर्शन करने के लिए योग ग्रंथों में जिस क्रिया का वर्णन किया गया है, उसे चित्तवृत्ति निरोध क्रिया अर्थात मन की चंचलता को रोकने की क्रिया कहते हैं। ऐसी सभी क्रिया मंत्र के अंतरर्गत आती है, जिसमें ध्यान योग, भक्ति योग, संगीर्तन योग, जप योग तथा प्रेम योग आता है। योग शास्त्रों में मन को भटकने से रोकने के लिए शरीर में मौजूद 7 चक्रों पर ध्यान किया जाता है। चक्र ध्यान से कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होता है और यह शक्ति जागृत होकर सभी चक्रों का भेदन करती है अर्थात चक्रों को जगाती है, जिससे मन स्थिर होता और मन में आध्यात्मिक विचार उत्पन्न होने लगते हैं।
शरीर में मौजूद चक्र का सम्बंध शक्ति पुंज अर्थात दिव्य ज्योति से है। देवी-देवताओं के पीछे दिखाई देने वाला तेज प्रकाश ही शक्ति पुंज है। इसकी पुष्टि प्राचीन काल में बनी देवी-देवताओं की मूर्ति व चित्र करती है। इन चित्रों के पीछे एक तेज रोशनी दिखाई जाती है। सभी देवी-देवताओं के पीछे एक दिव्य ज्योति को दिखाया जाता है। यह ज्योति प्रकाश पुंज या आभामंडल कहलाता है। यह प्रकाश उनके तेज का प्रतीक होता है। योग शास्त्रों के अनुसार जिस तरह शरीर में विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म तंत्र या सूक्ष्म कोश होते हैं, उसी तरह मानव शरीर में चक्र होते हैं। शरीर का यह चक्र ही भौतिक शरीर को अभौतिक शरीर से जोड़ता हैं। अभौतिक शरीर वह है, जिसे सीधे महसूस नहीं किया जा सकता। देवताओं के पीछे दिखाये गए इन आभामंडल का सम्बंध इन चक्रों से है तथा इन्हीं चक्रों के कारण एक साधारण मनुष्य योग क्रिया करके ईश्वर के सूक्ष्म रूप का दर्शन कर पाता हैं। योगाभ्यास के द्वारा इन चक्रों को देखा जा सकता है। इन चक्रों से निकलने वाली तेज रोशनी गोलाकार रूप में ध्यान करने वाले के चारों ओर घूमती रहती है।
आमतौर पर सभी लोगों में चक्र 3 अवस्था में जागृत रहते हैं। चक्र की पहली अवस्था संतुलन की होती है, परन्तु यह आदर्श स्थिति कम लोगों में पायी जाती है। व्यक्ति यदि अपने जीवन में लगातार किसी एक कार्य को ही करता रहता है, तो उस व्यक्ति में उससे सम्बंधित चक्र का जागरण हो जाता है। परन्तु जिस चक्र से सम्बंधित कोई कार्य नहीं होता वह सोई हुई स्थिति में चला जाता है।
योग शास्त्रों में चक्र ध्यान का वर्णन-
योग शास्त्रों में अनेक प्रकार की ध्यान साधना का वर्णन किया गया है, शरीर में स्थित सात चक्रों का ध्यान करना सबसे आसान व सरल है। चक्र ध्यान साधना का अभ्यास सभी व्यक्ति कर सकते हैं। बच्चे, बूढ़े, रोगी, स्वस्थ, युवा आदि सभी इसका अभ्यास कर सकते हैं। योग शास्त्रों के अनुसार सप्तचक्र ध्यान का अभ्यास करने से ही शरीर में मौजूद पंचतत्व- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश का संतुलन बना रह सकता है। मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के सही विकास के लिए सप्तचक्र ध्यान का अभ्यास करना आवश्यक है। इन शक्तियों के विकास की इच्छा मन में रखकर सप्तचक्र ध्यान साधना का अभ्यास करें। इसके अभ्यास में नियमों, सिद्धान्तों एवं विधियों का पालन करना चाहिए तथा इसकी शक्ति का महत्व और जन-जीवन कल्याण की उपयोगिता को समझाना चाहिए।
ध्यान का मुख्य काम मनुष्य के अन्दर की सोई हुई चेतना को जगाना है। सप्तचक्र ध्यान साधना एक ऐसी साधना है, जिसमें व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को बाहरी वस्तुओं से हटाकर अपनी आंतरिक आत्मा में लगाता है। इस साधना में मन को नियंत्रित कर उसे किसी एक केन्द्र पर स्थिर किया जाता है। इसमें बाहरी मानसिक विचारों का नाश होकर आंतरिक व आध्यात्मिक मानसिक विचार का विकास होता है। इस ध्यान साधना में दिव्य दृष्टि से शरीर के अलग-अलग स्थानों पर स्थित चक्र पर ध्यान केन्द्रित कर भिन्न-भिन्न रंगों के कमल के फूलों को देखने एवं उससे उत्पन्न सुख का अनुभव किया जाता है। इस ध्यान क्रिया में अपने ध्यान को मूलाधार चक्र से शुरू करके सहस्र चक्र पर केन्द्रित किया जाता है।
इस योग साधना का अभ्यास किसी भी रूप, रंग, वर्ग, आयु, धर्म, संस्कृति, राष्ट्रियता वाले कर सकते हैं। यह शारीरिक संरचना आदि किसी भी उलझनों में नहीं पड़ती, क्योंकि इसका अभ्यास कोई भी कर सकता है। सप्तचक्र ध्यान पद्धति एक वैज्ञानिक अभ्यास है। अत: इसमें सफलता केवल नियमित अभ्यास से ही प्राप्त की जा सकती है। सप्तचक्र ध्यान का अभ्यास किये बिना इसकी शक्ति का अनुमान लगाना असम्भव है। चक्र ध्यान अभ्यास के द्वारा चेतना शक्ति की पूर्ण शुद्धि करके जीवन के अस्तित्व को समझा जा सकता है तथा इसके द्वारा आध्यात्मिक उन्नति एवं परमात्मा का दर्शन किया जा सकता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए पैसे या अन्य वस्तुओं की जरूरत नहीं होती, बल्कि इसके लिए नियंमित अभ्यास, पूर्ण आत्मविश्वास तथा इच्छा शक्ति की जरूरत होती है।
आज के वातावरण के अनुसार सप्तचक्र ध्यान पद्धति अत्यंत लाभकारी है। चक्र ध्यान से तनाव, रोग, कष्ट तथा चिंता आदि दूर होते हैं। चक्र ध्यान से अच्छा स्वास्थ्य, सुख-शांति व उन्नत जीवन का विकास होता है। आज के चिकित्सा विज्ञान ने मानव जीवन को सुखी बनाने व विभिन्न प्रकार के रोगों से रक्षा के लिए ध्यान साधना को अधिक महत्व दिया है।
भारतीय दर्शनशास्त्र की 6 पद्धतियों का वर्णन किया गया है, जिसमें योग भी एक पद्धति है। ´महर्षि पतांजलि´ ने अपने ´योग सूत्र´ में योग के विभिन्न चक्रों को क्रमबद्ध और साफ ढंग से समझाया है, जिससे योग साधना के अभ्यास के क्रम में कोई भी पथ अधूरा न रह जाए। सप्तचक्र ध्यान साधना विशेष रूप से मानसिक और शारीरिक रोगों से बचाने, रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार लाने तथा तनाव पूर्ण स्थितियों को दूर करने में अधिक लाभकारी है।
महर्षि पतांजली ने अपने ´योग दर्शन´ शास्त्र में शरीर में मौजूद 7 चक्रों का वर्णन किया है, योग में इन चक्रों को सूक्ष्म शरीर का सप्तचक्र कहते हैं। इन सातों चक्रों पर ध्यान करने अर्थात मन को लगाने से आध्यात्मिक व अलौकिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। सूक्ष्म शरीर के इन 7 चक्रों का नाम इस प्रकार है-
• मूलाधार चक्र- यह जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित है।
• स्वाधिष्ठान चक्र- यह उपस्थ में स्थित है।
• मणिपूर चक्र- यह नाभिमंडल में स्थित है।
• अनाहद चक्र- यह हृदय के पास स्थित है।
• विशुद्धि चक्र- यह चक्र कंठकूप में स्थित है।
• आज्ञा चक्र- यह भ्रमध्यम में स्थित है।
• सहस्त्रार चक्र- यह मस्तिष्क में स्थित है।
योग शास्त्रों में मनुष्य के अन्दर मौजूद षट्चक्रों का वर्णन किया गया है। यह चक्र शरीर के अलग-अलग अंगों में स्थित है तथा इनके नाम भी भिन्न है। शरीर में 7 चक्र होते हैं, जिनका ध्यान करने से दिव्य शक्ति, दिव्य दृष्टि और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। इसके ध्यान से साधक मन और आत्मा परमात्मा अर्थात भगवान का दर्शन करता है। इन चक्रों का ध्यान आसन में बैठ कर किया जाता है। अत: आसन में बैठकर एक-एक करके इन चक्रों का ध्यान करें।
विभिन्न चक्रों का परिचय-
मूलाधार चक्र-
योग शास्त्रों में शरीर के अन्दर जिस दिव्य शक्ति की बातें की गई है, उस ऊर्जा शक्ति को कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं। यह कुण्डलिनी शक्ति शरीर में जहां सोई हुई अवस्था में रहती है, उसे मूलाधार चक्र कहते हैं। मूलाधार चक्र जननेन्द्रिय और गुदा के बीच स्थित है। ब्रह्माण्ड के निर्माण में जो तत्व मौजूद होते हैं, वह सभी तत्व मनुष्य के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति के रूप में मौजूद होते हैं। यह ऊर्जा शक्ति शरीर में मूलाधार में स्थित होती है। मूलाधार चक्र को योग में विश्व निर्माण का मूल माना गया है। यह शक्ति जीवन की उत्पत्ति, पालन और नाश का कारण है। इस चक्र का रंग लाल होता है तथा इसमें 4 पंखुड़ियों वाले कमल की आकृति होती है। अत: मनुष्य के अन्दर पृथ्वी के सभी तत्व मौजूद होते हैं। मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्व प्रधान है तथा 4 पंखुड़ियों वाला कमल अर्थात चतुर्भुज के आकार का है। इसका सांसारिक जीवन में बड़ा महत्व है, चक्र में स्थित यह 4 पंखुड़ियां वाला कमल पृथ्वी की चार दिशाओं की ओर संकेत करता है। मूलाधार चक्र का आकार 4 पंखुड़ियों वाला है और इस स्थन पर 4 नाड़ियां आपस में मिलकर 4 पंखुडियों वाले कमल की आकृति की रचना करती है। मूलाधार चक्र में 4 प्रकार की ध्वनियां- वं, शं, षं, सं होती रहती है। यह ध्वनि मस्तिष्क एवं हृदय के भागों को कंपित करती है। शरीर का स्वास्थ्य इन्ही ध्वनियों पर निर्भर करता है। मूलाधार चक्र रस, रूप, गन्ध, स्पर्श, भावों व शब्द का मेल है। यह ´अपान´ वायु का स्थान है तथा मल, मूत्र, वीर्य, प्रसव आदि इसी के अधिकार में है। मूलाधार चक्र कुण्डलिनी शक्ति, मानव जीवन की परमचैतन्य शक्ति तथा जीवन शक्ति का मुख्य स्थान भी यही है। यही चक्र मनुष्य की दिव्य शक्ति का विकास, मानसिक शक्ति का विकास और चैतन्यता का मूल स्थान है।
मूलाधार को स्वस्थ रखने के लिए व्यक्ति को अपने भय पर जीत प्राप्त कर सांसारिक व आध्यात्मिक शक्ति के बीच तालमेल बनाए रखना चाहिए। योग क्रिया के द्वारा इस शक्ति को जागृत कर अपने अन्दर अदभुत शारीरिक शक्ति का अनुभव किया जा सकता है।
स्वाधिष्ठान चक्र-
स्वाधिष्ठान चक्र उपस्थ में स्थित है। इसमें 6 पंखुड़ियों वाला कमल होता है। स्वाधिष्ठान चक्र में 6 नाड़ियां आपस में मिलकर 6 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की रचना करती है। इस चक्र में 6 ध्वनियां- वं, भं, मं, यं, रं, लं आती रहती है। इस चक्र का प्रभाव जन्म, परिवार, भावना आदि से है। स्वाधिष्ठान चक्र जलतत्व प्रधान है। स्वाधिष्ठान चक्र में पृथ्वी तत्व मिलने से परिवार और मित्रों से सम्बंध बनाने में कल्पना का उदय होने लगता है। इस चक्र का ध्यान करने से मन में भावना उत्पन्न होने लगती है और व्यक्ति का मन निर्मल व शुद्ध होने लगता है। स्वाधिष्ठान चक्र भी ´अपान´ वायु के अधीन होता है। इस चक्र वाले स्थान से ही प्रजनन क्रिया सम्पन्न होती है तथा इसका सम्बंध सीधे चन्द्रमा से है। समुद्रों में उत्पन्न होने वाला ज्वार-भाटा चन्द्रमा से नियंत्रित है। मनुष्य के शरीर का तीन चौथाई भाग जल है और शरीर में उत्पन्न उथल-पुथल इस चक्र के असंतुलन के कारण होती है। इसी चक्र के कारण मनुष्य के मन की भावनाओं प्रभावित होती है, स्त्रियों में मासिकधर्म आदि चन्द्रमा से सम्बंधित है और इन कार्यो का नियंत्रण स्वाधिष्ठान चक्र से होता है। इस चक्र के द्वारा मनुष्य के आंतरिक और बाहरी संसार में समानता स्थापित करने की कोशिश रहती है। इसी चक्र के कारण व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। स्वाधिष्ठान चक्र पर ध्यान करने से मन शांत होता है तथा धारणा व ध्यान की शक्ति प्राप्त होती है।
स्वाधिष्ठान चक्र मानव जीवन में सेक्स व आराम पसन्द व्यवहार से सम्बंधित है। इस चक्र के जागृत होने पर व्यक्ति का स्वभाव कामुक और आराम पसन्द हो जाता है। ऐसे व्यक्ति अपने पूरे जीवन में केवल एक्साइटमेंट या उत्तेजना की तलाश करता रहता है। जिस व्यक्ति में स्वाधिष्ठान चक्र का जागरण नहीं होता, उसकी इच्छा सेक्स के प्रति कम होती हैं।
मणिपूर चक्र-
मणिपूर चक्र नाभि में स्थित होता है तथा यह अग्नि तत्व प्रधान है। इस चक्र का रंग नीला होता है। यहां 10 नाड़ियां आपस में मिलकर 10 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की आकृति बनाती है। इस कमल का रंग पीला होता है तथा यहां 10 प्रकार की ध्वनियां- डं, ढं, तं, थं, दं, धं, नं, पं, फं, बं गूंजती रहती हैं। मणिपूर चक्र समान वायु का स्थान है। समान वायु का कार्य पाचन संस्थान द्वारा उत्पन्न रक्त एवं रसादि को पूरे शरीर के अंग-अंगं में समान रूप से पहुंचाना है। समान वायु का स्थान शरीर में नाभि से हृदय तक मौजूद है तथा पाचनसंस्थान इसी के द्वारा नियंत्रित होता है। पाचनसंस्थान का स्वस्थ एवं खराब होना समान वायु पर निर्भर करता है। इस चक्र पर ध्यान करने से साधक को अपने शरीर का भौतिक ज्ञान होता है। इससे व्यक्ति की भावनाएं शांत होती हैं।
मणिपूर चक्र ऊर्जा शक्ति व गर्मी से सम्बंधित होता है। यह चक्र नाभि के पास स्थित होता है। इस चक्र का जागरण जिस व्यक्ति के अन्दर होता है, वह अपने जीवन में निरंतर शक्ति व आविष्कार की तलाश में रहता हैं। ऐसे लोगों में अधिकार करने की भावना रहती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों पर शासन करने में खुशी का अनुभव करते हैं। जिन लोगों में इस चक्र की शक्ति कम होती है, उनका स्वभाव बिल्कुल उल्टा होता है।
अनाहत चक्र-
अनाहत चक्र हृदय के पास स्थित होता है। इस चक्र में श्वेत रंग का कमल होता है जिसमें 12 पंखुड़ियां होती है। इस स्थान पर 12 नाड़ियां आपस में मिलकर 12 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की आकृति बनाती है। अनाहत चक्र में 12 ध्वनियां निकलती है जो कं, खं, गं, धं, डं, चं, छं, जं, झं, ञं, टं, ठं होती है। यह चक्र प्राणवायु का स्थान है तथा यहीं से वायु नासिका द्वारा अन्दर व बाहर होती रहती है। प्राणवायु शरीर की मुख्य क्रिया का सम्पदन करता है जैसे- वायु को सभी अंगों में पहुंचाना, अन्न-जल को पचाना, उसका रस बनाकर सभी अंगों में प्रवाहित करना, वीर्य बनाना, पसीने व मूत्र के द्वारा पानी को बाहर निकालना आदि। यह चक्र हृदय समेत नाक के ऊपरी भाग में मौजूद है तथा ऊपर की इन्द्रियों का काम उसी के द्वारा सम्पन्न होता है। इस चक्र में वायु तत्व की प्रधानता है। प्राणवायु जीवन देने वाले सांस है। प्राण सम्पूर्ण शरीर में प्रसारित होकर शरीर को ओषजन (ऑक्सीजन) वायु एवं जीवनी शक्ति देता है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्य, समाज और स्वयं के वातावरण में सुसंगति एवं संतुलन की स्थापना करता है। अनाहत चक्र पर ध्यान करने से मनुष्यों को सभी शास्त्रों का ज्ञान होता है तथा वाक् पटु, संसार के जन्म-मरण के विषय में ज्ञान होता है, ऐसे मनुष्य ज्ञानियों में श्रेष्ठ, काव्यामृत रस के आस्वादन में निपुण योगी तथा अनेक गुणों से युक्त होते हैं।
जिस व्यक्ति में अनाहत चक्र का जागरण होता है, उसका स्वभाव भावनात्मक रूप से बेकाबू होता है। जिनमें यह चक्र कमजोर होता है, वे स्वभाव से बहुत तर्कशील होता है अर्थात ऐसा व्यक्ति किसी भी विषय में गहराई से खोज करता है तथा सोच-समझकर किसी कार्य को करता है। इस चक्र के प्रधान वाले लोग समाज सेवी तथा दूसरों का प्रवाह करने वाले होते हैं। इस चक्र के जागरण से लोगों में आध्यात्मिक और टेलीपैथी (दूर दृष्टि ज्ञान) जैसे गुणों का विकास होता है।
विशुद्ध चक्र-
यह चक्र कंठ में स्थित होता है जिसका रंग भूरा होता है और इसे विशुद्ध चक्र कहते हैं। यहां 16 पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है क्योंकि यहां 16 नाड़ियां आपस में मिलती है तथा इनके मिलने से ही कमल के फूल की आकृति बनती है। इस चक्र में ´अ´ से ´अ:´ तक 16 ध्वनियां निकलती रहती है। इस चक्र का ध्यान करने से दिव्य दृष्टि, दिव्य ज्ञान तथा समाज के लिए कल्याणकारी भावना पैदा होती है। इस चक्र का ध्यान करने पर मनुष्य के रोग, दोश, भय, चिंता, शोक आदि दूर वह लम्बी आयु को प्राप्त करता है। यह चक्र शरीर निर्माण के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह चक्र आकाश तत्व प्रधान है और शरीर जिन 5 तत्वों से मिलकर बनता है, उसमें एक तत्व आकाश भी होता है। आकाश तत्व शून्य है तथा इसमें अणु का कोई समावेश नहीं है। मानव जीवन में प्राणशक्ति को बढ़ाने के लिए आकाश तत्व का अधिक महत्व है। यह तत्व मस्तिष्क के लिए आवश्यक है और इसका नाम विशुद्ध रखने का कारण यह है कि इस तत्व पर मन को एकाग्र करने से मन आकाश तत्व के समान शून्य और शुद्ध हो जाता है।
इस चक्र का सम्बंध मस्तिष्क से होता है। जिस व्यक्ति में इस चक्र का जागरण होता है, वे किसी भी संसारिक क्रिया को आलोचनात्मक या हीन नज़रिये से देखता है। ऐसे व्यक्ति हर बातों में बहस करने तथा दूसरों को परेशान करने में अपनी महानता समझते हैं।
आज्ञा चक्र-
आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है। इस चक्र में 2 पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है, इसका रंग सुनहरा होता है। इस चक्र में 2 नाड़ियां मिलकर 2 पंखुड़ियों वाले कमल की आकृति बनाती है। यहां 2 ध्वनियां निकलती रहती है। यूरोपीय वैज्ञानिकों के अनुसार इस स्थान पर पिनियल और पिट्यूटरी 2 ग्रंथियां मिलती है। योगशास्त्र में इस स्थान का विशेष महत्व है। इस चक्र पर ध्यान करने से सम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता आती है। मूलाधार से ´इड़ा´, ´पिंगला´ और सुशुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होती हुई इसी स्थान पर मिलती हैं। इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है। योग ग्रंथ में इसके बारे में कहा गया है-
इड़ा भागीरथी गंगा पिंगला यमुना नदी।
तर्योमध्यगत नाड़ी सुषुम्णाख्या सरस्वती।।
अर्थात ´इड़ा´ नाड़ी को गंगा और ´पिंगला´ नाड़ी को यमुना और इन दोनों नाड़ियों के बीच बहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहते हैं। इन तीनों नाड़ियों का जहां मिलन होता है, उसे त्रिवेणी कहते हैं। जो मनुष्य अपने मन के इन चक्रो पर ध्यान करता है, उसके सभी पाप नष्ट होते हैं।
आज्ञा चक्र मन और बुद्धि का मिलन स्थान है। यह ऊर्ध्व शीर्ष बिन्दु ही मन का स्थान है। सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यहीं आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास व गुरू की सहायता से साधक कुण्डलिनी शक्ति को आज्ञा चक्र में प्रवेश कराता है और फिर में कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार चक्र में विलीन कराकर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है।
आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है तथा इस पर ध्यान करने से दिव्य दृष्टि प्राप्त होता है। इस चक्र का सम्बंध जीवन को नियंत्रित करने से है।
सहस्त्रार चक्र-
सहस्त्रार चक्र ब्रह्मन्ध्र से ऊपर मस्तिष्क में स्थित सभी शक्तियों का केन्द्र है। इस चक्र का रंग अनेक प्रकार के इन्द्रधनुष के समान होता हैं तथा इसमें अनेक पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है। इस चक्र में ´अ´ से ´क्ष´ तक की सभी स्वर और वर्ण ध्वनि उत्पन्न होती रहती है। यह कमल अधोखुला होता हैं तथा यह अधोमुख आनन्द का केन्द्र होता है। साधक अपनी साधना की शुरूआत मूलाधार चक्र से करके सहस्त्रार चक्र में उसका अंत करता है। इस स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने पर सभी शक्तियां एकत्र होकर असम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता प्राप्त होती है। सहस्त्रार चक्र में ध्यान करने से उस चक्र में प्राण और मन स्थिर होते हैं। इस चक्र पर ध्यान करने से संसार में किये गए बुरे कर्मो का नाश होता है। ऐसे व्यक्ति यदि कोई अच्छे कर्म न भी करता हो तो भी योग के कारण पुन: उस प्राण का जन्म इस संसार में नहीं होता। ऐसे साधक अच्छे कर्म करने और बुरे कर्मो का नाश करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं। खेचरी की सिद्धि प्राप्त करने वाले साधक अपने मन को वश में कर लेते हैं, उनकी आवाज भी निर्मल हो जाती है। आज्ञा चक्र को सम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान कहा जा सकता है, क्योंकि यही दिव्य दृष्टि का स्थान है। इसे शक्ति को दिव्यदृष्टि तथा शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं। इस तरह असम्प्रज्ञात समाधि में जीवात्मा का स्थान ब्रह्मरन्ध्र है, क्योंकि इसी स्थान पर प्राण तथा मन के स्थिर हो जाने से असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है।
सहस्त्र चक्र मस्तिष्क में स्थित होता है और जो व्यक्ति इस चक्र का जागरण करने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, वे जीवन मृत्यु पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं। सभी लोगों में अंतिम 2 चक्र सोई हुई अवस्था में रहते हैं। अत: इस चक्र का जागरण सभी लोगों के वश में नहीं होता। इस चक्र का जागरण करने में कठिन साधना व लम्बे समय तक अभ्यास की आवश्यकता होती है। योग गुरुओं के अनुसार इस चक्र का जागरण आम जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति को जबदस्ती नहीं करना चाहिए। इस चक्र का केवल ध्यान करना चाहिए और स्वास्थ्य तथा सुखमय जीवन व्यतीत करना चाहिए और यही आज के मानव जीवन के लिए योग और विज्ञान की कामना है।
इन चक्रों का ध्यान एक-एक करके करना चाहिए। इन सप्त चक्रों के ध्यान करने की विधि-
मूलाधार चक्र-
इसके अभ्यास के लिए पहले किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जाएं। अपने दोनों हाथों को ज्ञान मुद्रा व अंजलि मुद्रा में रखें तथा अपनी आंखों को बन्द करके रखें। अपनी गर्दन, पीठ व कमर को सीधा करके रखें। सप्तचक्र ध्यान का अभ्यास शवासन में भी किया जा सकता है। अब सबसे पहले अपने ध्यान को गुदा से 4 अंगुली ऊपर मूलाधार चक्र पर ले जाएं। फिर मूलाधार चक्र पर अपने मन को एकाग्र व स्थिर करें और अपने मन में चार पंखुड़ियों वाले बन्द लाल रंग वाले कमल के फूल की कल्पना करें। फिर अपने मन को एकाग्र करते हुए उस फूल की पंखुड़ियों को एक-एक करके खुलते हुए कमल के फूल का अनुभव करें। इसकी कल्पना के साथ ही उस आनन्द का अनुभव करने की कोशिश करें। उसकी पंखुड़ियों तथा कमल के बीच परागों से ओत-प्रोत सुन्दर फूल की कल्पना करें। इस तरह कल्पना करते हुए तथा उसके आनन्द को महसूस करते हुए अपने मन को कुछ समय तक मूलाधार चक्र पर स्थिर रखें। इसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र पर मन को एकाग्र करें।
स्वाधिष्ठान चक्र-
पहली विधि के बाद अपने ध्यान को उपस्थ में स्थित स्वाधिष्ठ चक्र पर ले जाएं और 6 पंखुड़ियों वाले कमल के पीले रंग के फूल की कल्पना करें। साथ ही कल्पना करें कि इसकी सभी पंखुड़ियां आपस में कली की तरह मिली हुई है। इस कमल के फूल को अपनी आंतरिक दृष्टि से देखने तथा मन को वहां केन्द्रित करते हुए एक के बाद एक पंखुड़ियों को खिलाएं। जब पूर्ण रूप से पीले रंग का कमल खिल जाए तो उसके सौन्दर्य को महसूस करें और उसके आनन्द का भी अनुभव करें। इस तरह कुछ समय अपने मन को वहां स्थिर करके उस चक्र पर ध्यान को केन्द्रित करें।
मणिपूर चक्र-
स्वाधिष्ठ चक्र के बाद अपने मन को नाभि के पास स्थित मणिपूर चक्र में केन्द्रित करें। मन में कल्पना करें कि नाभि में पीले रंग का 10 दल वाला कमल का फूल है, जिसकी पंखुड़ियां आपस में मिली हुई है। ध्यान चक्र का अभ्यास करने वाले को चाहिए कि अपने मन को एकाग्र कर अपनी कल्पना के द्वारा उस फूल को खिलाएं और उससे मिलने वाले आनन्द का अनुभव करें। इस तरह नीले रंग के खिले हुए कमल के फूल पर अपने मन को कुछ देर तक केन्द्रित करें। इसके बाद अनाहत चक्र पर स्थिर करें।
अनाहद चक्र-
मणिपूर चक्र पर ध्यान लगाने के बाद अपने ध्यान को अनाहत चक्र अर्थात हृदय के पास स्थित चक्र पर लगाएं। मन को एकाग्र व शांत रखते हुए 12 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की कल्पना करें। कल्पना करें कि हृदय के पास चक्र में 12 पंखुड़ियों वाला कमल का फूल है, जिसका रंग सफेद हैं और इस फूल की सभी पंखुड़ियां आपस में बन्द है। इसके बाद अपनी आंतरिक दृष्टि से कमल की सभी पंखुड़ियों को खिलाएं और कुछ समय तक इस पर ध्यान को केन्द्रित करें। इसके बाद विशुद्धि चक्र पर ध्यान केन्द्रित करें।
विशुद्धि चक्र-
हृदय के पास स्थित चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने के बाद अपने ध्यान को कंठमूल में स्थित विशुद्धि चक्र पर केन्द्रित करें। इस चक्र पर ध्यान करते हुए भूरे रंग के 15 दलों वाले कमल के फूल की कल्पना करें। इसके बाद अपनी आंतरिक दृष्टि को केन्द्रित करते हुए अपने मन में कमल की एक-एक पंखुड़ियों को खिलाते हुए स्थिति की कल्पना करें। फिर खिले हुए फूल की सुन्दरता के आनन्द को प्राप्त करते हुए कुछ समय तक अपने मन को वहीं स्थिर रखें।
आज्ञा चक्र-
अपने ध्यान को दोनों भौंहों के बीच भ्रूमध्य में स्थित आज्ञा चक्र पर लाएं। इस चक्र में 2 पंखुड़ियों वाले कमल के फूल की कल्पना करें जिसका रंग सुनहरा है। इसकी भी दोनों पंखुड़ियां आपस में मिली हुई है। आंतरिक दृष्टि से उस कमल के फूल को स्पष्ट करने की कोशिश करें और अपने मन को केन्द्रित करते हुए कमल की पंखुड़ियों को खिलाते हुए चित्र की कल्पना करें। खिले हुए कमल के फूल को देखें और कुछ समय तक अपने मन को उस चक्र पर केन्द्रित करें। इसके बाद ध्यान को सहस्त्रार चक्र पर केन्द्रित करें।
सहस्त्रार चक्र-
कंठमूल के पास स्थित चक्र पर ध्यान केन्द्रित करने के बाद सहस्त्रार चक्र पर अपने ध्यान को केन्द्रित करें। यह ध्यानाभ्यास पहले के सभी अभ्यास से अलग है। अपने ध्यान को एक-एक कर सभी चक्रों पर केन्द्रित करते हुए ऊपर के स्थित सहस्त्रार चक्र पर स्थिर किया जाता है। पहले सभी चक्रों का ध्यान करते हुए कमल के बन्द फूल की कल्पना की जाती है और उसे अपनी आंतरिक दृष्टि से स्पष्ट करने की कोशिश की जाती है। परन्तु इस चक्र में अपने ध्यान को केन्द्रित करते हुए अधोमुख अर्थात आधे खुले हुआ कमल के फूल की कल्पना की जाती है। इसमें अपने ध्यान को सहस्त्रार चक्र में लगाते हुए कल्पना करें कि अधोखुले कमल के फूल है। सातवें चक्र पर ध्यान केन्द्रित करना ध्यान का सबसे अंतिम ध्यानाभ्यास है। इसका ध्यान करने से मन में सुख, शांति और सत्य का ज्ञान का अनुभव होता है। ध्यान की यात्रा मूलाधार चक्र से शुरू होकर सहस्त्रार चक्र में समाप्त हो जाती है।
अंतिम चक्र पर ध्यान का अभ्यास करते समय अपने मन को मस्तिष्क के बीच वाले भाग में स्थित सहस्त्रदल कमल के फूल पर स्थिर करें। मन को उस पर केन्द्रित कर कल्पना करें कि उस फूल में सभी रंग मौजूद है और वह नीचे की ओर खिला हुआ है। ध्यान करें कि यह चक्र प्रतिबिम्बों का सागर, सभी चेतनाओं का केन्द्र, यह वर्तमान, भूत और भविष्य है तथा मानव जीवन का यही आदि और अंत है। कुछ देर मन को एकाग्र करने के बाद मूलाधार चक्र के ठीक विपरीत ध्यान का त्याग सहस्त्रार चक्र में करें।
इस तरह सहस्त्रार चक्र पर कुछ समय तक ध्यान को केन्द्रित रखें। फिर सहास्त्रार चक्र से अपने ध्यान को हटा लें और अपने ध्यान को भौंहों के बीच स्थित आज्ञा चक्र पर लाएं। भौंहों के बीच स्थित कमान पर अपने ध्यान को एकाग्र कर खुले हुए कमल की पंखुड़ियों को बन्द करें। इसके बाद कंठमूल में स्थित विशुद्धि चक्र पर ध्यान करें और खिली हुए पंखुड़ियों को बन्द कर दें। फिर हृदय के पास स्थित अनाहत चक्र पर ध्यान को लाकर फूल की खिली हुई पंखुड़ियों को बन्द करें। इसके बाद नाभि में स्थित मणिपूर चक्र पर ध्यान को लाएं और खिले हुए फूल को बन्द करें। फिर अपने ध्यान को स्वाधिष्ठान चक्र पर लाएं और फूल की पंखुड़ियों को बन्द करें। इसके बाद अपने ध्यान को नीचे स्थित मूलाधार चक्र पर लाएं और खिले हुए फूल की पंखुड़ियों को बन्द कर अपने मन को आंतरिक चेतना से बाहर निकालें अर्थात ध्यानावस्था से बाहर निकाले और अपने शरीर का ज्ञान करें। जिस आसन में बैठे है या लेटे हैं उस आसन का ज्ञान करें। फिर आसन को त्यागकर सामान्य स्थिति में आ जाएं। पैरों के पंजों को ऊपर नीचे चलाएं तथा सिर को दाएं-बाएं घुमाएं। मुट्ठी को 4 से 5 बार बन्द करें और खोलें। दोनों हाथों को आपस में रगड़ें और अपनी आंखों व मुंह पर सहलाएं। हाथों से कुछ देर तक आंखों को बन्द करके रखें और 4 से 5 बार आंखों को खोले व बन्द करें। कुछ समय तक मौन व शांत स्थिति में बैठे रहें और फिर अभ्यास की स्थित का त्याग करें। 10 से 15 मिनट बाद अपने प्रतिदिन के कार्य के लिए चले जाएं।

ध्यान


आप सभी मित्र का स्वगत है. ओशो ध्यान  योग  में,
ओशो और उनके दिए गए ध्यन विधियों के प्रोयोग और जानकारिया तथा योग के बारे में एक छोटा सा प्रयास.सभी ओशो प्रेमी का स्वागत तथा मेरा प्रणाम स्वीकार करे .

 




विपासना ध्यान

परिचय-
          योग शास्त्रों में ध्यान को तीन भागों में बांटा गया है- धारणा, ध्यान और समाधि। धारणा ध्यान की साधारण अवस्था है जिसमें व्यक्ति मन को दृढ़ और एकाग्र करता है। ध्यान में व्यक्ति मन को किसी विषय-वस्तु पर चिन्तन व मनन में लगाता है। ध्यान की उच्च अवस्था ही समाधि है जिसमें मन को पूर्ण रूप से ईश्वर में लीन (मग्न) कर दिया जाता है। सभी प्रकार के कष्टों को दूर कर मन में सत्य का ज्ञान व आनन्द प्राप्त कराना ही ध्यान साधना का मुख्य लक्ष्य है और यह विपासना, ध्यान साधना से ही प्राप्त किया जा सकता है। वास्तव में विपासना ध्यान साधना योग क्रिया की अंतिम स्थिति है, जिसकी शुरुआत धारणा से होकर शाश्वत ध्यान में होती है और अंत में समाधि के रूप में यह समाप्त हो जाती है। ध्यानाभ्यास मनुष्य की चेतना को उत्प्रेरित करता है। जब इन्द्रियां अपने कार्यों की ओर अग्रसर होती है, तो मनुष्य के रोग व मानसिक तनाव बढ़ जाता है। परन्तु विपासना ध्यान साधना के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक तनाव दूर होकर मन शांत व आनन्दमय बनता है। 
          विपासना ध्यान साधना व्यक्ति का मानसिक विकास, सात्विक और शांत जीवन व्यतित करने में सहायक तो होती ही है, साथ ही यह वैराग्य द्वारा आध्यात्मिक विकास करने में भी लाभकारी होता है। विपासना ध्यान साधना वास्तव में हमारे अन्दर बिखरी हुई शक्ति को एकत्र करके एक तेज शक्ति का विकास करती है। जब हमारे अन्दर की सभी आध्यात्मिक व शारीरिक शक्ति एकत्रित हो जाती है, तब उन शक्तियों को हम शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए उपयोग करते हैं। ध्यान के अभ्यास के बिना आध्यात्मिक सुख तो क्या सांसारिक सुख की प्राप्ति करना भी सम्भव नहीं है।
          विपासना ध्यान साधना विधि एक सम्पूर्ण विज्ञान है, जिसके अभ्यास से व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक ज्ञान की स्थापना होती है। ध्यान योग यद्यपि मुख्य रूप से आध्यात्मिक साधना विधि के रूप में जाना जाता है, परन्तु यह जीवन के उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी लाभकारी है। इसके अभ्यास से व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर अपने आप ईश्वरमय हो जाता है। ध्यानावस्था के अभ्यास से जब व्यक्ति जीवन की बाहरी क्रियाओं को छोड़कर आंतरिक जीवन में अपने-आप को लगा लेता है तो उस समय उसे नई-नई अनुभूतियां प्राप्त होती है। तब मानव जीवन सफल और आसान बन जाता है, जिससे व्यक्ति के अन्दर अदभुत कला आ जाती है। ध्यान के द्वारा विवेक, बुद्धि और भावना पर नियंत्रण करने पर अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है। इस संसार को महात्मा गौतम बुद्ध ने सबसे अनमोल और अदभुत वस्तु प्रदान की है जिसे विपासना ध्यान साधना कहते हैं।
          बहिर्मुखता के अंतिम स्थिति पर पहुंचते हुए मनुष्य के व्यक्तित्व को विपासना ध्यान साधना के द्वारा जीवन के अच्छी दिशा की ओर किया जा सकता है। इसके लिए केवल सही समय पर शुभ प्रेरणा और सही संकल्प चाहिए। यदि संयोग से किसी दिव्य ध्यान योगी का आश्रय मिल जाए तो जीवन धन्य हो जाता है। मानव जीवन की शक्तियों के रचनात्मक विकास के लिए भगवान बुद्ध ने विपासना ध्यान साधना की रचना की है। योग शास्त्र में विर्णत ध्यान योग की अनेक विधियां है, जिनमें से किसी एक विधि को अपनाकर मानव जीवन को सफल बनाया जा सकता है। मनुष्य के जीवन की सभी समस्याओं को दूर करने की क्रिया ध्यान साधना है।
          मानव अपने जीवन में विपासना ध्यान साधना को अपनाकर मन की विभिन्न शक्तिओं को संतुलित कर बुद्धि का विकास करने, शरीर एवं मन के विभिन्न विक्षेपों को संतुलित करने तथा आत्मा की अनंत शक्ति प्रकट करने में सफल होता है। मस्तिष्क पर ध्यान साधना का अच्छा प्रभाव पड़ता है।
         वैज्ञानिकों द्वारा मस्तिष्क पर की गई कुछ खोजों से पता चलता है कि मस्तिष्क के विभिन्न भागों की असमर्थता से इसके सभी कार्यों में असंतुलन उत्पन्न होता है, जिससे शरीर के कार्य में रुकावट उत्पन्न होने लगती है और शरीर रोगों का शिकार हो जाता है। इसका अर्थ है कि मस्तिष्क की सभी नाड़ियां एक-दूसरे के साथ मिलकर कार्य नहीं करती बल्कि वे एक-दूसरे के विपरित कार्य करती है। जिसके परिणाम स्वरूप शरीर को नियंत्रण करने वाली प्रणाली में गड़बड़ी उत्पन्न होने लगती है।
          इस तरह जब शरीर नियंत्रण के बाहर हो जाता है तो मन में क्षोभ उत्पन्न होने लगता है, जिसके कारण मानसिक तनाव बढ़ जाता है और शारीरिक शक्ति का नाश होने लगता है। शरीर पर मस्तिष्क का नियंत्रण न होने से मन की विचारधारा भी कमजोर हो जाती है। उदाहरण के लिए मस्तिष्क का ऊपरी हिस्सा भावनाओं का होता है और निचले भाग में बुद्धि का हिस्सा होता है। जब किसी कारण से दोनों के बीच असंतुलन उत्पन्न हो जाता है तब हमारे विचार तथा भावनाओं का मेल नहीं होता। ऐसी स्थिति में जो हम सोचते हैं, उसे अनुभव नहीं कर पाते। इस तरह मस्तिष्क की क्रिया में असंतुलन उत्पन्न होने से उलझन एवं कष्ट उत्पन्न होते हैं। विपासना ध्यान के अभ्यास से इन समस्याओं को दूर कर बुद्धि, विचार व भावनाओं को एकत्रित कर दिव्य शक्ति व ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है।
विपासना ध्यान की उत्पत्ति-
          हिन्दू धार्मिक और उपनिषदों परम्पराओं के अनुसार प्राचीन काल से ही लोग दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष (मुक्ति) को पाने की इच्छा करते रहें हैं। इन इच्छाओं के कारण ही बौद्ध धर्म का उदय हुआ। मोक्ष प्राप्त करना ही बौद्ध धर्म का महान कार्य है और इस महानता के कारण ही यह धर्म पूरे एशिया में फैलाया गया।
          ´बुद्ध´ का अर्थ है प्रबुद्ध व्यक्ति अर्थात जिसे सत्य का ज्ञान हो। भगवान बुद्ध का वास्तविक नाम सिद्धार्थ था और इनका जन्म उत्तर पूर्वी भारत के तराई क्षेत्र में लुंबिनी नामक स्थान पर शाक्य वंश में हुआ था। उनके पिता का नाम शुद्धोधन और माता का नाम मायादेवी था। भगवान बुद्ध का पालन-पोशन महलों में ही हुआ था जिससे उन्हें बाहरी जीवन का कोई ज्ञान नहीं था। परन्तु जब वे महलों से बाहर निकले तो उन्होंने ऐसे तीन दृश्य देखें जिसे देखकर उनके अंतर मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। ये तीनों दृश्य उनके जीवन को बदल कर रख दिया। ये तीन दृश्य थे-
  • एक बूढ़ा व्यक्ति जिनका शरीर नष्ट हो रहा है अर्थात वह मर रहा है।
  • किसी भयंकर रोग से पीड़ित व्यक्ति।
  • एक मरा हुआ व्यक्ति जिसे अंतिम संस्कार के लिए लोग श्मशान ले जा रहे थे।
          इन तीनों दृश्य को देखकर उनके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि कोई ऐसा रास्ता खोजा जाए जिससे मनुष्य सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति पा सके तथा जीवन के सत्य का पता लगा सके। उस समय वे विवाहित थे और उनका एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। फिर भी वे 29 वर्ष की आयु में अपने घर को त्याग कर सत्य की खोज में तथा जीवन का अर्थ जानने के लिए निकल पड़े। पीपल के एक पेड़ के नीचे कठिन तपस्या करने के बाद वे बिहार में बोधगया नामक स्थान पर उन्हें अपना ज्ञान प्राप्त हुआ।
          भगवान बुद्ध के अनुसार संसार में उत्पन्न होने वाले सभी दु:खों का मुख्य कारण तृष्णा (लोभ) है। जिसमें किसी भोग्य वस्तु को प्राप्त करने की लालसा होती है, वही व्यक्ति दु:खी होता है। बुद्ध ने चार महान सत्य के बारे में संसार को बताया है- 
  • पहला सत्य यह है कि संसार दु:खों से भरा हुआ है। जन्म, मरण, रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु की सभी सामान्य घटनाओं के साथ ही दु:ख जुड़ा हुआ है।
  • दूसरा सत्य यह है कि दु:ख का कारण लोभ-लालसा की भूख है।
  • तीसरा सत्य यह है कि दु:खों को खत्म करने के लिए मन में उत्पन्न सभी प्रकार के लोभ-मोह त्याग देने चाहिए।
  • चौथा सत्य यह है कि अष्टागिक अर्थात सत्य का ज्ञान, सत्य का भाव, सत्य बोलना, अच्छा व्यवहार, अच्छे कर्म, हमेशा अच्छाई की कोशिश करना, अच्छे विचार और सत्य साधना। इन आठ अंगों का पालन करके संसारिक वस्तुओं के लोभ से छुटकारा पाया जा सकता है।
          भगवान बु़द्ध ने अपना पूर्ण जीवन एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए व्यतीत कर दिया। बुद्ध का सिद्धान्त ही उनका धर्म था जो अत्यंत लाभकारी और आसान था। किसी भी जाति या व्यवसाय के लोगों के लिए बौद्ध धर्म का उद्देश्य निर्वाण की प्राप्ति है जो पूर्णत: शांति तथा दु:खों के दूर करने की सबसे अच्छी साधना है।
          गौतम बुद्ध अपने आपको भगवान होने का दावा नहीं करते थे, बल्कि अपने को भगवान का एक ऐसा सेवक मानते थे, जो लोगों को जीवन का सही ज्ञान देते थे। जिससे मनुष्य के जीवन का दु:ख समाप्त हो जाए और वह वह पूर्ण शांति को प्राप्त कर सके। जीवन की उच्च स्थिति को पाने के लिए अष्टागिक मार्ग का अंतिम अंग सत्य साधना के अंतर्गत विपासना ध्यान की विधि के साथ सांगोपांग वर्णन दिया गया है।
          विपासना ध्यान साधना एक ऐसी साधना है जिसका अभ्यास आसानी से किया जा सकता है। विपासना ध्यान का अभ्यास बच्चे, बूढ़े, जवान, रोगी सभी कर सकता है। विपासना ध्यान साधना का अभ्यास तीन विधिओं द्वारा किया जा सकता है। अत: व्यक्ति तीनों विधियों में से किसी भी विधि का उपयोग अपनी इच्छा के अनुसार कर सकता है।
विपासना ध्यान पहली विधि-
          विपासना ध्यान के अभ्यास के समय व्यक्ति को हमेशा अपने प्रति जागरूक रहना चाहिए तथा किसी भी प्रकार के शारीरिक या मानसिक क्रियाकलाप के प्रति सावधान रहना चाहिए। कोई भी कार्य मानसिक या शारीरिक अचेतन या अवचेतन अवस्था में न करें। ध्यान साधना के अभ्यास में जो भी विचार मानसिक रूप से उत्पन्न हो, चाहे वह भावना या आवेग ही क्यों न हो, उनके प्रति दृढ़ बने रहें। आवेगों एवं भावनाओं के वेगों में अपने-आप को न बंधने दें। ऐसी स्थिति में न सोचे की क्या अच्छा है, क्या बुरा है। शांति से अपना जीवन व्यतीत करें। सुख-दु:ख आदि सभी लोभ-मोह का ही परिणाम है। मन का यही विचार ध्यान का हिस्सा है। इस प्रकार जो ध्यान किया जाता है, वह विपासना ध्यान की पहली विधि है।
          ध्यान साधना के अभ्यास के लिए शुद्ध व स्वच्छ हवा बहाव वाला स्थान चुने। फिर किसी ध्यानात्मक आसन जैसे- सुखासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठ जाएं। आंखों को बन्द करके रखें। सांस क्रिया को सामान्य रूप से करते रहें। अपने ध्यान को शरीर, मन व उत्पन्न होने वाली भावनाओं के प्रति जागरूक रहें।
विपासना ध्यान की विधि-
          किसी भी पद्मासन या सुखासन या सिद्धासन में बैठ जाएं। बैठने के बाद सांस क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करें। ध्यान रखें की सांस अन्दर खींचते हुए पेट फूले और सांस बाहर छोड़ते हुए पेट को अन्दर की ओर खींचें। इस तरह सांस क्रिया को लयबद्ध रूप से करें अर्थात सांस लेने व छोड़ने के समय को बराबर करें तथा अपने मन को सांस की उसी क्रिया पर केन्द्रित करें। इस विधि का प्रतिदिन 10 से 15 मिनट तक अभ्यास करने से मानसिक विचारों की उन्नत्ति होती है। यह विपासन ध्यान की दूसरी विधि है।
विपासना ध्यान तीसरी विधि-
          इसके अभ्यास के लिए पहले किसी ऐसे स्थान को चुने जहां स्वच्छ व साफ वातावरण हो। फिर उस स्थान पर किसी भी बताएं गए आसन जैसे- पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठ जाएं। अब अपने मन को सांस पर केन्द्रित करें तथा नाक के द्वारा सांस अन्दर खींचें। सांस खींचते हुए उच्चतम स्थिति अनुभव करें तथा जो सांस के द्वारा वायु अन्दर जा रही है, उसकी शीतलता (ठंडक) का अनुभव करें। इस सांस क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करते हुए सांस लेने व छोड़ने की क्रिया का 10 से 15 मिनट तक अभ्यास करें। यह विपासना ध्यान की तीसरी विधि है।
          इस तरह विपासना ध्यान साधना की पहली विधि में शरीर, मन और भावनाओं के विषय में जागरूक रहना पड़ता है। इस तरह पहली विधि में तीन क्रियाओं पर ध्यान देना होता है। दूसरी में पेट के फूलाने व पिचकाने पर ध्यान देना होता है, जो एक चरण होता है। इन दोनों विधियों का परिणाम सामान्य है। जब सांस क्रिया व पेट की क्रियाओं के प्रति अधिक जागरूकता आ जाती है तो आपका मस्तिष्क और हृदय शांत हो जाता है तथा सभी इच्छाओं का नाश हो जाता है।
          वास्तव में यही विपासना ध्यान की तीसरी विधि है। इसमें मन और मस्तिष्क पूर्ण रूप से शांति का अनुभव करता है। जब मन नाक के द्वारा सांस लेने व छोड़ने की क्रिया में उत्पन्न शीतलता ऊष्मा का अनुभव करता है, तब मन की इच्छा खत्म होकर एकरूप हो जाती है जिसके परिणाम स्वरूप सभी सांसारिक क्रियाएं अपने-आप रुक जाती है। चेतना अपने स्वरूप को जान लेती है। व्यक्ति को आत्मदर्शन हो जाता है। विपासना ध्यान साधना करते हुए ध्यान की इसी स्थिति को समाधि कहा गया है।

साक्षी ध्यान

साक्षी ध्यान के अभ्यास की विधि-
          साक्षी ध्यान साधना का अभ्यास 3 स्थितियों में किया जाता है। पहली स्थिति में मन को शांत, स्वच्छ एवं अंतर आत्मा में केन्द्रित करने का अभ्यास किया जाता है। दूसरी स्थिति में मन को सांस क्रिया पर एकाग्र किया जाता है। तीसरी स्थिति में जब मन और सांस लयबद्ध हो जाते हैं, तब मन को अपनी इच्छा के अनुसार किसी एक स्थान केन्द्र पर केन्द्रित किया जाता और अपने अंदर की बुराइयों को दूर किया जाता है।
पहली स्थिति-
          ध्यान के अभ्यास के लिए किसी भी ध्यानात्मक आसन जैसे- पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन या सुखासन में बैठ जाएं। आसन में अधिक देर तक आराम से बैठ सकने वाले आसन में ही बैठे। इसके अभ्यास को कुर्सी या सोफे पर बैठकर भी किया जा सकता है। आसन वाली जगह पर स्वच्छ हवा का बहाव होना आवश्यक है।
          अब आसन में बैठकर अपनी पीठ, छाती, गर्दन व कमर को सीधा रखें। हाथों को घुटनों पर रखें और आंखों को बन्द कर लें। अब मन को पूर्ण रूप से स्वतंत्र कर दे अर्थात मन को अपनी इच्छा के अनुसार ही सोचने दें। मन यदि स्वतंत्र रूप से घूमते हुए किसी दृश्य, रूप, मंत्र अथवा चिंतन में रुकता है, तो रुकने दें। मन जिस तरह के विचार या दृश्य की कल्पना करता है, बस साक्षी भाव से, दृष्टि भाव से उन विचारों व दृश्यों को मात्र देखते रहें। ऐसे विचारों पर ध्यान दें, चाहे विचार अच्छें हो या बुरे, भविष्य के हो या भूतकाल के, आध्यात्मक हो या भौतिक उन्ही पर ध्यान केन्द्रित करें। अपने साक्षी भाव से सिर्फ उसे ही देखते रहे। इस ध्यान के अभ्यास में मन के विचार जिस रूप में भी रुकते हैं, उनका ध्यान ही करें।
समय-
          साक्षी ध्यान का अभ्यास कम से कम 5 मिनट और अधिक से अधिक 10 मिनट तक करें। इस अभ्यास में ध्यान रखें कि बाहर से सुनाई देने वाली किसी भी प्रकार की ध्वनि को अपने अभ्यास में बाधा न माने। अपने ध्यान को मन के अनुसार ही एकाग्र करके रखें। इस ध्यान साधना में मन को किसी भी स्थिति में एकाग्र व स्थिर किया जाता है।


अभ्यास से लाभ-
          साक्षी दर्शन से हमारे मन के दबे हुए विचार, विकार, ग्रंथियां एवं  संस्कार धीरे-धीरे वैसे ही निकल जाते हैं, जैसे किसी धातु को आग में गलाने से धातु शुद्ध हो जाती है और मन गंगाजल के समान स्वच्छ, शुद्ध, शक्तिशाली एवं उपयोगी हो जाता है।
दूसरी स्थिति-
          ध्यान की इस विधि में मन को किसी केन्द्र बिन्दु पर स्थिर किया जाता है। साक्षी दर्शन से मन को शांत, स्वच्छ एवं अर्न्तमुखी करने के बाद मन को सांस क्रिया के साथ लगा दें। इसमें सांस लेने और छोड़ने पर मन को एकाग्र किया जाता है। इस स्थिति में मन को उसी तरह सांस के साथ स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है जैसे किसी पानी की धारा में जलकुम्भी अपने आप को पानी के सहारे छोड़ देती है। इस क्रिया में मन नाक के अगले भाग पर एकाग्र होता है और जैसे-जैसे सांस (वायु) नाक के द्वारा होते हुए नाभि तक जाती है और नाभि से श्वास लौटता हुआ नासिका द्वार के बाहर आता है, वैसे ही मन भी घूमता रहता है। अब धीरे से मन को मात्र नाभि पर केन्द्रित करें और कल्पना करें कि सांस क्रिया के द्वारा नाभि जो ऊपर-नीचे होती रहती है, उस पर मन बैठकर मन झूल रहा है। ध्यान की इस स्थिति में नाभि के स्पन्दन दर्शन मे बराबर वैसे ही जागरूक होते हैं, जैसे किसी पानी से भरे बर्तन को सही सलामत ऊपर पहुंचाना। इसमें ध्यान रखें कि नाभि का स्पन्दन बिना आपकी जानकारी के न हो। इसका अभ्यास कम से कम 5 मिनट और अधिक से अधिक 10 मिनट करना चाहिए।
          इस अभ्यास में एकाग्रता, ध्यान और चित्त शांति की अवस्था में स्वयं के दोष स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। एकाग्रता, ध्यान और चित्त शांति की अवस्था में मन के विपरित निर्णय लेने से स्वयं के दोष व विकार नष्ट होते हैं तथा मन स्वच्छ व साफ होता है।
          इस ध्यान के अभ्यास में व्यक्ति को अपने अंदर अच्छे गुणों को संस्कारित करना चाहिए। इस तरह ध्यान में उसके सकारात्मक चिंतन से अच्छे संस्कार उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार जीवन की किसी भी समस्या को दूर करने के लिए साक्षी ध्यान के अभ्यास के समय उस समस्या का ध्यान करने से उसका समाधान मिल जाता है, एकाग्रता की अवस्था में, ध्यान की अवस्था में चित्त शांति की अवस्था में ध्यान करने से स्वयं ही उसका हल निकल आता है। भारतीय ऋषि-मुनि इसी ध्यान साधना सें जीवन की कठिन समस्याओं को आसानी से दूर करते हुए अपने जीवन का जीते रहें है।
तीसरी स्थिति-
  • साक्षी ध्यान की तीसरी विधि में स्वयं के दोषों का ध्यान करना और उन्हे दूर करने का संकल्प किया जाता है। इस स्थिति में ध्यान करते हुए अपने मन में संकल्प करें-
  • मैं संकल्प लेता हूं कि मुझे अब ईश्वर की कृपा से कभी क्रोध नहीं आता है और मैं हमेशा शांत रहता हूं।´´ अपनी आंखों को बन्द करके एक-एक अक्षर को देखते हुए मन ही मन 3 बार बोले।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से झंझलाहट की परिस्थितियों में भी अब मुझे झुंझलाहट नहीं होती है।´´ इन शब्दों को 3 बार अपने मन में दोहराएं। मन ही मन बोलते हुए अपनी आंखों में उन शब्दों को एक-एक करके देखें।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मुझे बुरे मार्ग पर चलने पर भी अच्छे मार्ग व अच्छे कार्य याद रहते हैं।´´ आंखों को बन्द करके इन संकल्पों को 3 बार बोलें और उनका ही ध्यान करें।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मै विपरीत परिस्थितियों में भी साहस एवं शांति बनाए रखता हूं।´´ इन शब्दों का भी 3 बार आंख बन्द करके ध्यान करें।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मैं सत्य कहता हूं। मैं किसी भी बातों को मधुरता के साथ कहता हूं।´´ इस शब्द को भी 3 बार आंखें बन्द करके ही कहें।        
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से मैं छोटे से छोटे कार्य को भी समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी के साथ करता हूं।´´ आंखों को बन्द करके ही इन शब्दों को 3 बार दोहराएं और मन ही मन उनका ध्यान करें।
  • मैं विश्वास करता हूं कि ईश्वर सभी जगह मौजूद है, ईश्वर ही  सर्वशक्तिमान है, ईश्वर ही संसार का पालन-पोषण करने वाला है। संसार में किसी के द्वारा किये गए अच्छे और बुरे कर्मो का फल मिलता है।´´ इन शब्दों को आंख बन्द करके ही मन ही मन 3 बार दोहराएं।
  • मैं ईश्वर की प्रेरणा से अपनी आय का दसांश, अपने भोजन का चतुर्थाशं, 24 घंटे में अवश्य लगाता हूं।´´ मन ही मन इन शब्दों का ध्यान करते हुए 3 बार दोहराएं।
  • मैं संकल्प करता हूं कि ईश्वर की कृपा से प्राण शक्ति की वृद्धि हेतु मै नियमित प्राणायाम एवं यौगिक व्यायाम तथा एकाग्रता, शुद्धि एवं वृद्धि के लिए नियमित साक्षी ध्यान का अभ्यास अवश्य करता हूं।´´ मन ही मन इन शब्दों का ध्यान करते हुए 3 बार दोहराएं।
तीसरी स्थिति में ध्यान करते हुए कुछ अन्य क्रियाएं-
          ध्यान करने के लिए अपनी इच्छा के अनुसार किसी भी शब्दों का उच्चारण कर सकते हैं। ध्यान के अभ्यास में ´ओंकार´ ध्वनि का जप करें।
          ध्यान की अवस्था में ´ऊं´ का जप श्वास-प्रश्वास के साथ लम्बे स्वर में करें- ´ओ ओ ओ..........म् म् म्.......................
साक्षी ध्यान के अभ्यास के कुछ नियम-
  • ध्यान का अभ्यास दिन भर में कम से कम 30-30 मिनट तक 2 बार करें। ध्यान के अभ्यास के लिए सबसे अच्छा समय सुबह 4 से 5 और शाम को 8 से 10 के बीच करना चाहिए। ध्यान के अभ्यास के लिए यह समय शांत व स्वच्छ होता है और ध्यान लगाने में आसान होता है।
  • ध्यान का अभ्यास सुबह सोकर उठने के तुरन्त बाद शौच आदि से आने के बाद हाथ-मुंह धोकर स्वच्छ व साफ होकर करें। सुबह चेतना सोई हुई अवस्था में रहती है और सुबह उठकर ध्यान करने से उस चेतना अवस्था में प्रवेश करने में आसानी होती है। शरीर पूर्ण रूप से स्वच्छ व साफ होने से ध्यान के अभ्यास में नींद नहीं आती। ध्यान के अभ्यास के क्रम में रात को अधिक तली हुई वस्तु या मिठाई आदि का सेवन न करें।
  • लेटे-लेटे ध्यान करने का भ्रम नहीं पालना चाहिए। इसमें नींद में जाने की संभावना रहती है। लेटते समय भगवान का जप किया जा सकता है।
  • ध्यान के प्रमुख आसन है- पद्मासन, सुखासन, सिद्धासन और स्वातिकासन। इनमें सिद्धासन को ध्यान के अभ्यास के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।
  • ध्यान की साधना के साथ तप, सेवा और वितरण की साधना परमावश्यक है।
  • ध्यान का आसन अधिक ऊंचा नहीं होना चाहिए। जब चेतना अंदर जाती है, तो शरीर ढीला हो जाता है, जिसके कारण गिरने का खतरा रहता है।
  • सुबह और शाम जब भी समय मिले ध्यान का अभ्यास कर सकते हैं। ध्यान रखें कि ध्यान के लिए आसन बिछाकर ही बैठें तथा आसन ऊंचा या कठोर न हो।
  • विपरीत परिस्थिति या क्रोध की स्थिति में तुरन्त ध्यान पर बैठ जाना चाहिए। इससे क्रोध जल्दी शांत हो जाता है।
  • ध्यान में रीढ़ की हड्डी सीधी रखनी चाहिए। ध्यान के समय आवश्यक होने पर पीठ के पीछे तकिये को भी रख सकते हैं।
  • पढ़ने वाले बच्चों के लिए भी ध्यान बहुत जरूरी है, क्योंकि इसमें समझने की शक्ति, स्मरण शक्ति एवं प्रज्ञा वृद्धि बढ़ती है।
  • ध्यान के बीच में कोई जरूरी विचार आने पर कागज पर लिख लेना चाहिए, क्योंकि ध्यान में दैवीय प्रेरणा भी मिलती है।
  • किसी समस्या से ग्रस्त हो जाएं और उसका हल न मिल रहा हो तो साक्षी ध्यान में बैठ जाएं और उसके हल का इंतजार करें।